रोज़ यूं मर- मर के जीना ज़िन्दगी होती नही ।
हम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।
ज़र्द पत्ता हूँ बढाऊँ कांपता सा हाथ मैं ,
पर मेरी पागल हवा से दोस्ती होती नही ।
जिस की आँखों में भी झांकू भीड़ सी आये नज़र,
हम से इतने शोर में तो बंदगी होती नही ।
फूल खिलते ही गिरी हो लाश भंवरे की जहाँ
उस जगह कोई भी खुशबू बावरी होती नही ।
मैं मेरे अंदर से बोलूँ इस जगह कैसे रहूँ ,
दम मेरा घुटता यहाँ भी बंसरी होती नही ।
अब तो बस इत्हास बनना चाह रहा हर आदमी ,
अब किसी चिहरे पे कोई ताज़गी होती नही ।
पत्थरों के शहर में पत्थर बना जसबीर भी ,
अब किसी आईने से कोई दोस्ती होती नहीं ।
Sunday, February 20, 2011
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बहुत सुन्दर गज़ल्।
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