Sunday, February 20, 2011

ग़ज़ल .....५

वो मुझको पहनकर जब अपने घर को लौट जाते हैं ।
तो हर दीवार को आईना समझकर मुस्कराते हैं ।

तेरी तस्वीर बनते ही कहीं उनसे बिखर जाती ,
वो तारे इस लिए ही रात सारी तिलमिलाते हैं ।

अभी हैं इस जगह ना जाने कल फिर किस जगह होंगे,
कदम मेरे बिना मुझको लिए भी दौढ़ जाते हैं ।

बसाया है अभी आँखों में जैसे मैं कोई आँसू ,
मुझे बस देखना वो कब मुझे दरिया बनाते हैं ।

वो कैसे खोलें दरवाज़े अगर 'जसबीर' दे दस्तक ,
हवा सी उँगलियाँ लेकर लुटेरे भी तो आते हैं ।

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