Sunday, February 20, 2011

मैं लोगों ने समता-2

मैं जो लोगों ने पहने उन नकाबों को नही समझा ।
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाब्बों को नहीं समझा ।

सवाले-यार था इतना के आखिर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।

वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्र ही उनके हिसाबों को नही समझा ।

वो मेरी हर ग़ज़ल में है नुमाया और नज़्मों में  ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।

वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से लगते ,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।

बहुत  लोगो के जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है ,
मैं उसके इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।

यूं तो हर रात ही 'खामोश 'सी मेरी  गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाब्बों को नही समझा ।

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