मैं जो लोगों ने पहने उन नकाबों को नही समझा ।
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाब्बों को नहीं समझा ।
सवाले-यार था इतना के आखिर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।
वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्र ही उनके हिसाबों को नही समझा ।
वो मेरी हर ग़ज़ल में है नुमाया और नज़्मों में ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।
वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से लगते ,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।
बहुत लोगो के जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है ,
मैं उसके इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।
यूं तो हर रात ही 'खामोश 'सी मेरी गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाब्बों को नही समझा ।
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाब्बों को नहीं समझा ।
सवाले-यार था इतना के आखिर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।
वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्र ही उनके हिसाबों को नही समझा ।
वो मेरी हर ग़ज़ल में है नुमाया और नज़्मों में ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।
वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से लगते ,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।
बहुत लोगो के जीवन में अँधेरा ही अँधेरा है ,
मैं उसके इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।
यूं तो हर रात ही 'खामोश 'सी मेरी गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाब्बों को नही समझा ।
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