कैवल्य
वो संवेदना के शहर से
चुप की भाषा बोलती
इस जिस्म के गाँव में
चांदनी सी तरंगे घोलती
गलीओं की अंतड़ीओं में
पदचाप की उर्जा टटोलती
निरंतर गातीशील है
पैरों की उंगलीओं की कलमों से
माथे पर लिखी हुई
इबारत की
तीसरी आँख तक ...
मैं तो फिसलता रहा हूँ
हर जनम
अप्पने ही जिस्म से
और गिरता रहा हूँ
कहीं बहुत दूर
भटकता रहा हूँ
अप्पने आप को पड़ने के लिए
दौड़ता रहा हूँ
अप्पने आप को छूने के लिए
उस सिफ़र की तलाश में
जो मेरी तीसरी आँख बनता
माथे पर लिखी इबारत
पड़ने के लिए
मेरी रोशनी बनता ......
सदीयां बीती
वकत गुज़रे
समय बदला
स्थान बदले
पर मैं ....मैं ही रहा
तूँ ना बन सका
हर वार कोई
दूर बहुत दूर से
पास आकर पुकारता रहा
मैं हर वार
अपनी किसी तृष्णा के रंगों से
कैनवास को सजाता रहा
तृप्ति के शब्दों को
किताबों में बुलाता रहा
ना जाने कौन सी
गिनती में गुमसुम
मैं हर आवाज़ को
दरकिनार करता रहा .......
लेकिन अब
कुदरत के इस लम्बे चौड़े
अदृश्य शिलालेख पर
मैंने पहली वार
वो नाम पड़ने की कोशिश की है
जो हमेशा से मेरा था
पहली वार
मैं तृष्णा की ज़मीन से उठकर
अप्पने ही भीतर से निकले
रमणीक राह पर
बे-पैर होकर चला हूँ
मुकती की तरफ
कैवल्य की और
मुझे देख लो
जान लो
पहचान लो
मैं वकत के आईने के सामने
आख़री वार खड़ा हूँ ....... ।
कोई पुकार रहा है
संवेदना के शहर से ।
Sunday, February 20, 2011
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बहुत ही उम्दा रचना , बधाई स्वीकार करें .
ReplyDeleteआइये हमारे साथ उत्तरप्रदेश ब्लॉगर्स असोसिएसन पर और अपनी आवाज़ को बुलंद करें .कृपया फालोवर बनकर उत्साह वर्धन कीजिये