जब भी कभी
लिखने बैठता हूँ
मन का घोडा
दोड़ता है
चारों और
बीतीं घटनाएँ
अपनी अपनी
जगह पर बैठती
पासा फैंकती है .....
घोडा सीधा दोड़ता है
मन में बसे लोग
आपस में
वार्तालाप करतें हैं
दूर कहीं
कोई गुम सा सन्नाटा
बाहें उठाकर
नाचने लगता है ........
घोडा
दूसरी दिशा में
दौड़ना शुरू करता है
कई तरह के रंग
उभरते हैं
उन्ही रंगों में से
निकलता घोडा
कई रंगों में रंगा जाता है .....
घोडा दिशा बदलता है
मेरे भीतर से
कुछ निकलकर
उसके पीछे
भागने लगता है
उसके मुह का
स्वाद बदलता है
पर वो दोड़ता दोड़ता
अपनी मंजिल की और
बढता है .......
घोडा फिर
और तेज दोड़ता है
और जब वो
जीतने के करीब होता है
बस
बस उसी वकत वो
दिशाहीन ह जाता है
शायद वहीं से फिर
चारों दिशाएँ
निकलतीं है ........
जब भी... कभी
मैं लिखने बैठता हूँ
तो मन का घोडा
पता नहीं
किस किस को जिताता है
पर ...
मुझे हमेशा
लिखनी पड़ती है
एक हार की गाथा
.........
सच कहूं
मुझे हार से डर लगता है
..........
सच कहूं
मुझे लिखने से डर लगता है
Saturday, February 26, 2011
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