मैं पत्थर हूँ मुझे जीना नहीं भगवान सा बनकर ।
मुझे रहना नहीं खुद में कोई मेहमान सा बनकर ।
कोई जीता यां हारा ख़ाक मेरी ही उडी हर पल ,
रहा मैं ज़िन्दगी की जंग का मैदान सा बनकर ।
मेरी हर सोच में रहता है यह बाज़ार दुनिया का ,
मैं अप्पने घर पड़ा रहता हूँ बस सामान सा बनकर ।
रहा हूँ मैं तेरी दुनिया में जैसे मैं नहीं कुछ भी ,
रहा मैं दूर मैं मैं से कहीं बेजान सा बनकर ।
मेरे अंदर छुपा ऐसा भी है "जसबीर " का चिहरा ,
जो मुझको रोज़ मिलता है मगर अनजान सा बनकर ।
Sunday, February 20, 2011
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