Saturday, September 15, 2012

                  ग़ज़ल
                                   

मुझको आँखों में तुम बसाओ  तो   ।।
मुझको मुझसे  कभी  मिलाओ  तो  ।।

मेरे  हाथों  पे   हाथ   रखो    तो ,
कुछ   लकीरें   नई  बनाओ    तो ।

होश  ही  होश फिर रहे  मुझको ,
जाम पे  जाम  गर  पिलाओ  तो ।

मेरे  मन  में लिखा  पढ़ो  तुम भी ,
रिशते  ऐसे  कभी  निभाओ  तो ।

खुद से  चोरी  मुझे भी  देखो तो ,
और  फिर खुद को भूल जाओ तो ।

शब्द 'खामोश' तो नहीं होते
यूं  ही मुझ  को कभी बुलाओ तो ।

Sunday, July 8, 2012

                  ग़ज़ल

अब तो मैं तेरे सहारे भी संभल सकता नहीं |
थक गया हूँ दौड़ कर अब और चल सकता नहीं |

वो सियारा है अगर तो रोशनी में वो जले ,
मैं अँधेरा हूँ किसी के साथ जल  सकता नहीं |


एक दिन छुआ छूयाई में ही साया खो गया  ,
मुझको लगता था मेरा  सूरज तो ढल सकता नहीं |


अजनभी हूँ अजनभीयत सी तबीयत बन गयी  ,
अब मेरा कोई भी रिश्ता मुझको छ्ल सकता नहीं  |


उसने राहें छीन लीं हैं पर उसे मालुम नहीं ,
ख्वाब तो बस  ख्वाब हैं उनको निगल सकता नहीं |


एक उलझन से निकल "जसबीर " बच ना पाओगे  ,
उलझनों का ताज तो  सर से निकल  सकता नहीं |

                

Saturday, June 23, 2012

jab se ....

जब से

जब से अपने सितारे गर्दिश में ।
तब से सारे सहारे गर्दिश में ।

मैं तो कतरा हूँ उस समुन्दर  का ,

जिसके सारे किनारे गर्दिश में ।

दूर तक अब कोई नही दिखता,
मैं ही मैं को पुकारे गर्दिश में

सब की आँखों पे खाक के परदे ,
कौन किसको निहारे गर्दिश में ।

ज़िन्दगी मौत जब गले मिलती ,
मिल ही जाते शरारे गर्दिश में ।

याद 'जसबीर ' उम्र भर रहते ,
जो भी लम्हे गुजारे गर्दिश में ।


Saturday, April 21, 2012

         चुप -1
         ===
       चुप की  
         अपनी 
       आवाज़ होती है
        -------
       चुप की 
       अपनी 
       पहचान होती है 
       ..........
      जब भी 
      कभी .....हम 
      चुप को  बोलते हैं 
      तो ...
      अपने ही भीतर 
     कोई गिरह
     खोलते हैं .

चुप -२
=====
शब्द 
जब 
यात्रा पर होता 
तो 
कई तरंगों से 
घिरा होता 
--------
हवा 
पानी 
आग
धरती
आकाश
---------
शब्द 
हमेशा 
छोर के साथ चलता 
ना जाने 
कितनी भाषाओँ में ढलता 
.........
शब्द की
उर्जा 
पूरे
 ब्रहमांड में 
पडी होती
.........
शब्द 
जहाँ रुकता 
वहां 
चुप 
खड़ी होती . 
 
    
  

Sunday, April 1, 2012

ग़ज़ल

मैं चाहता हूँ मेरी कोई ग़ज़ल उस साज तक जाये ।।
जिसे सुनकर कोई मेरी ही दी आवाज़ तक आये ।।

मैं उसको मंजिल-ऐ - मक़सूद की जानब तो ले जाऊं ,
वो सब कल छोड़कर गर आज मेरे आज तक आये ।

मिला मुझ को नहीं कोई सिरा कैसे सफ़र करता ,
वो हर अंजाम से पहले नये आगाज़ तक आये ।

मुझे लगता है फिर तो हम भी वो आकाश छु लेंगे ,
तूं अप्पने पंख लेकर गर मेरी परवाज़ तक आये ।

मेरी किस्मत मेरा बिरहा मेरे ही सामने रोये ,
कोई लाखों में यूं बिरहा के तख्तो-ताज तक जाये ।

उने "जसबीर "अब तो मौत से डर ही नहीं लगता ,
जो पल पल के सफर में ज़िन्दगी के राज़ तक आये ।

Saturday, February 18, 2012

इश्क का मसीहा

हर अणु में
दिखता है
जब
इश्क का मसीहा
तो
सपने जाग जाते हैं
अपनी ही नींद के भीतर
पलों -छिनों में
चाँद निकलता है
मन के दरवाज़े से
भीतर आता है
अँधेरा मुस्कराता है
और
रोशनी के कहीं भीतर
खुद को पाता है .........


एक संवेदना है
जिस्म के
अंग अंग में
फ़ैली हुई
एक साया
मेरे ही बिसतर से
उठता है
मुझे जगाता है
और खुद को
मुझ से
दूर कहीं पाता है ........

जागे हुए
मन से
तन से
एक अर्थ उठता है
बे-शब्द दुआ
होठों पर बैठती है
प्यास बढती है
वो साया
फिर पास आता है
जिस्म के अंग अंग में
फ़ैल जाता है ............

मैं.... तूं
तूं ....मैं
सब एक सा
हो जाता है
मैं ...तूं
तूं ...मैं
के बीच
जो कुछ भी
होता है
सहजता से
दूर चला जाता है ..........

हर अणु में
दिखता है
जब ...
..इश्क का मसीहा ।

Saturday, February 4, 2012

ग़ज़ल

जब से मैं तेरे साज़ की चुप हूँ ।
तब से अपनी आवाज़ की चुप हूँ ।

मुझ को मालूम नहीं कहाँ जाना ,
इस लिए हर आगाज़ की चुप हूँ ।

शब्द होते तो अर्थ मिल जाते ,
मैं तो उम्र-ऐ -दाराज़ की चुप हूँ ।

तुम ने वादा कोई निभाया था ,
मैं तेरे उस लिहाज़ की चुप हूँ ।

मैं ना 'सुकरात' हूँ ना' सरमद 'हूँ ,
मैं तो अपने ही राज़ की चुप हूँ ।

मैं तो ' जसबीर ' जीत पाया ना ,
इस लिए हर मुहाज़ की चुप हूँ ।

Saturday, January 28, 2012

दिल का जलना

दिल का जलना तो आज कल कम है ।
फिर भी आँखों में तैरता गम है ।

ज़ख़्म ऐसा मिला मुझे उनसे ,
ज़ख़्म सूखा तो दाग को गम है ।

दिन ढले ही चिराग़  रोशन हो ,
फिर न कहना के रोशनी कम है ।

उम्र भर ढूंढ़ते रहे जिसको ,
उसको मेरी तलाश का गम है ।

अब तो 'खामोश' रह के जी लो तुम
अब तो तेरे  रकीब में दम है ।

Sunday, January 8, 2012

पहचान

मुझे
अभी मेरे बारे
उतना ही पता है
जितना
आपने ..मुझे
मेरी बाबुत
कहा है
और
आपको
मेरे बारे
बस उतना ही इल्म है
जितना
मेने खुद को
आपके आगे रखा है ..........

आपने
मेरे विवहार को
स्वै-प्रगटा कहा
स्वै-विश्लेषण कहा
पर
वो मेरे
अतल की
प्रमाणिकता नहीं
आपने
मेरे शब्दों को ही
वो सब कुछ
समझ लीया
जो
अक्सर
मैं सोचता हूँ .........

आपने
बस
मेरा चिहरा पढ़ पढ़
पता नहीं
...क्या कुछ सोच लीया
...क्या कुछ समझ लीया
पर
मेरी
आत्मा का
कोरा कागज़
कोई नहीं पढ़ सका
लोग आते रहे
........जाते रहे
और
यह कोरा कागज़
सारी उम्र
मुझ को
खुद को
निहारता रहा ........

पर
आज मैं
आप सब को
बताता हूँ
के मैं
अपने ....धरातल में
कही नीचे
बहुत अकेला हूँ
वहां....
किसी के लिए भी
कोई
प्रवेश-द्वार नहीं
कोई रास्ता नहीं ........

मैं
इस अकेलेपन के
धरातल से कही नीचे
एक खज़ाना ढूंढ रहा हूँ
जो......जन्म- जन्म
मैं ही दफनाता रहा
पर
पता नहीं
कब ?कहाँ ? कैसे?
मैं उसका का
अता-पता
भूल गया हूँ.........

मुझे
पता है
जब ...मैंने
वो ..खज़ाना
ढूंढ लीया
तो आप मुझे
उतना जान सकोगे
जितना
मुझे
मेरे बारे पता है ।

Saturday, January 7, 2012

हे कविता

हे कविता
समय के इस अंतराल में
जितना
मैं
बुढापे की और बड़ा
उतनी तुम जवां हुई
मैं
जितना कांपा
जितना टूटा
उतनी तुम साबुत स्थिर रही.....


मेरे
चिहरे पर
जितनी लकीरें उभरी
उतनी तुम
संजीव होकर
उन लकीरों में
समाती रही
मेरे लिए
आकाशी शब्द
ढूंढ ढूंढकर लाती रही .........



हे कविता
अब जब
मैं
फिर तेरे करीब हूँ
तो मुझे लगता है
जाने की कोई
परिभाषा
नहीं होती
अभीलाषा
नहीं होती ।