हे कविता
समय के इस अंतराल में
जितना मैं बुढ़ापे की और बढ़ा
उतना तुम जवां हुई
मैं जितना कापां
उतना तुम सिथिर रही
मेरे चिहरे पर
जितनी लकीरें उभरी
उतना तुम संजीव होकर
मेरे इर्ध-गिर्ध घूमती रही
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मैं तुम से
दूर रहने का परियास करता रहा
पर तुम मेरे बहुत करीब रही
मैंने तुम्हे शब्दों से दूर रखा
पर तुम मेरे लिए
आकाशी शब्द
ढूंढ ढूंढकर लाती रही
.....................
पर अब
जब मैं एक
लम्बे समय के बाद
तुम्हारे पास आया हूँ
तो मुझे महसूस हुआ के
इतना
संवेदनहीन नहीं हूँ मैं
..........................
हे कविता
अब जब तुम
फिर मेरे करीब हो
तो मुझे लगता है
जाने की कोई
पारीभाषा नहीं होती ।
Thursday, February 24, 2011
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