Saturday, January 7, 2012

हे कविता

हे कविता
समय के इस अंतराल में
जितना
मैं
बुढापे की और बड़ा
उतनी तुम जवां हुई
मैं
जितना कांपा
जितना टूटा
उतनी तुम साबुत स्थिर रही.....


मेरे
चिहरे पर
जितनी लकीरें उभरी
उतनी तुम
संजीव होकर
उन लकीरों में
समाती रही
मेरे लिए
आकाशी शब्द
ढूंढ ढूंढकर लाती रही .........



हे कविता
अब जब
मैं
फिर तेरे करीब हूँ
तो मुझे लगता है
जाने की कोई
परिभाषा
नहीं होती
अभीलाषा
नहीं होती ।

No comments:

Post a Comment