हे कविता
समय के इस अंतराल में
जितना
मैं
बुढापे की और बड़ा
उतनी तुम जवां हुई
मैं
जितना कांपा
जितना टूटा
उतनी तुम साबुत स्थिर रही.....
मेरे
चिहरे पर
जितनी लकीरें उभरी
उतनी तुम
संजीव होकर
उन लकीरों में
समाती रही
मेरे लिए
आकाशी शब्द
ढूंढ ढूंढकर लाती रही .........
हे कविता
अब जब
मैं
फिर तेरे करीब हूँ
तो मुझे लगता है
जाने की कोई
परिभाषा
नहीं होती
अभीलाषा
नहीं होती ।
Saturday, January 7, 2012
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