Saturday, February 4, 2012

ग़ज़ल

जब से मैं तेरे साज़ की चुप हूँ ।
तब से अपनी आवाज़ की चुप हूँ ।

मुझ को मालूम नहीं कहाँ जाना ,
इस लिए हर आगाज़ की चुप हूँ ।

शब्द होते तो अर्थ मिल जाते ,
मैं तो उम्र-ऐ -दाराज़ की चुप हूँ ।

तुम ने वादा कोई निभाया था ,
मैं तेरे उस लिहाज़ की चुप हूँ ।

मैं ना 'सुकरात' हूँ ना' सरमद 'हूँ ,
मैं तो अपने ही राज़ की चुप हूँ ।

मैं तो ' जसबीर ' जीत पाया ना ,
इस लिए हर मुहाज़ की चुप हूँ ।

2 comments:

  1. गज़ब के शेर हैं सभी के सभी .....

    तुम ने वादा कोई निभाया था ,
    मैं तेरे उस लिहाज़ की चुप हूँ ।

    मैं ना 'सुकरात' हूँ ना' सरमद 'हूँ ,
    मैं तो अपने ही राज़ की चुप हूँ ।.................वाह बहुत बढिया

    ReplyDelete