Sunday, November 1, 2009

धरती माँ

धरती तो चेतन है
जागी हुई
और परिकर्मा कर रही है
सदीओं का पहन के सुनहरी मुकुट
पर आर्शीवाद देने के लिए मजबूर है
सरहद के दोनों ही तरफ़
लड़ रहे बहादुर जवानो को
क्यूके
वो तो माँ है ...

पर हम ने
इस माँ को बाँट रखा है
छोटे छोटे टुकडों में काट रखा है
चिट्टे,काले,पीले और भूरे रंगों में
इसको शिंगार के
पूरी धरती में वो रंग
ढूँढने लगते हैं
जो हमारे मन में बसा हो ...

कई वार
हम इस माँ के
पैरों के बफादार सिपाही होकर
इसके हाथों को कांट देते हैं
सर पर बारूद फैंकते हैं
जीभ को कतल कर देते हैं
और कभी कभी तो
इसका हिरदा नाप कर
उसका नामकरण कर देते हैं
अपनी ही सीमत सोच अनुसार ...

यह कैसी हमदर्दी है
कैसा प्यार है
कैसा सतिकार है इस माँ के लिए
जिसके एक हिस्से को
हम संवारना चाहते हैं
और दूसरे को
मिटाना चाहते हैं ....

धरती तो चेतन है
जागी हुई ।

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