Wednesday, November 11, 2009

पत्थरों के इन घरों में

पत्थरों के इन घरों में तो नज़ाकत ही नहीं ।
किस तरह का शहर है जिस में मुहब्बत ही नहीं

नाम ना लूँगा कभी बस भूल जाऊँगा उसे ,
पर यह लगता है मेरी ऐसी तबीयत ही नहीं।

पहले आंखों में मुहब्बत फ़िर बहारें पतझडे ,
इस जगह कोई भी ऐसी तो रवा
यत ही नहीं ।

जब किसी ने हाल पुछा अपना ये उत्तर रहा ,
हाल अपना ठीक है बस दिल सलामत ही नहीं ।

सब उमीदों के दिए मैं तो भुझाने को चला ,
अब कोई आएगा लगता ऐसी सूरत ही नहीं ।

अब आज़ादी ही आज़ादी हर तरफ है दोस्तो,
अब किसी दिल की किसी दिल पे हकुमत ही नहीं।



4 comments:

  1. क्या बात है..जबरदस्त!!

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  2. बहुत अच्छी रचना है जसबीर जी, बधाई हो
    शब्द बुझाना होता है भुझाना नहीं,इसे ठीक करलें तो बेहतर है।

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