चलो इक वार फिर से दुश्मनी में दोस्ती ढूँढे ।
किसी टूटे हुए से बांस में इक बांसुरी ढूँढे ।
मैं यूँ तो अपने अंदर उस खुदा को देखना चाँहू,
मगर उससे भी पहले क्यूं ना मन की खलबली ढूँढे ।
हमरे इश्क की तो दास्ताँ थी एक लम्हे की ,
मगर हम उम्र -भर उसमे ही अपनी ज़िन्दगी ढूँढे ।
मुहब्बत बनते बनते बन गयी विओपार सी अब तो ,
बहुत से लोग फ़िर भी हैं जो इसमे बंदगी ढूँढे ।
वो मुझ को जब भी मिलते हैं कई चिहरे लिए होते ,
मगर हम इन मखोटों में भी कितनी सादगी ढूँढे ।
चलो शब्दों में कहते हैं कोई तो दास्ताँ अपनी ,
यह हो सकता है अर्थों को कोई तशनालबी ढूँढे ।
कभी तो सोच भी मुझको हकीकत सी ही लगती है ,
जो हुया ही नही उसमे भी हम तो ज़िन्दगी ढूँढे ।
Sunday, November 1, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment