Sunday, November 1, 2009

ग़ज़ल

चलो इक वार फिर से दुश्मनी में दोस्ती ढूँढे ।
किसी टूटे हुए से बांस में इक बांसुरी ढूँढे ।

मैं यूँ तो अपने अंदर उस खुदा को देखना चाँहू,
मगर उससे भी पहले क्यूं ना मन की खलबली ढूँढे ।

हमरे इश्क की तो दास्ताँ थी एक लम्हे की ,
मगर हम उम्र -भर उसमे ही अपनी ज़िन्दगी ढूँढे ।

मुहब्बत बनते बनते बन गयी विओपार सी अब तो ,
बहुत से लोग फ़िर भी हैं जो इसमे बंदगी ढूँढे ।

वो मुझ को जब भी मिलते हैं कई चिहरे लिए होते ,
मगर हम इन मखोटों में भी कितनी सादगी ढूँढे ।

चलो शब्दों में कहते हैं कोई तो दास्ताँ अपनी ,
यह हो सकता है अर्थों को कोई तशनालबी ढूँढे ।

कभी तो सोच भी मुझको हकीकत सी ही लगती है ,
जो हुया ही नही उसमे भी हम तो ज़िन्दगी ढूँढे ।

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