मैं लोगों ने जो पहने उन नकाबों को नही समझा ।
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाबों को नहीं समझा ।
सवाले-यार था इतना के आख़िर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।
वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्मर ही उनके हिसाबों को नही समझा ।
वो मेरी हर ग़ज़ल में है वो मेरी हर नज़म बनती ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।
वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से दिखते,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।
मेरी किसमत के सूरज ने मूझे दीया अँधेरा है ,
मैं अब तक इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।
मेरी हर रात तो उनके खिआलों में गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाबों को नही समझा ।
Monday, October 26, 2009
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बेहतरीन ग़ज़ल...........
ReplyDeleteबहुत अच्छे !
वाह !
बहुत उम्दा गजल...उम्मीद है आगे भी इसी तरह की रचना पढ़ने को मिलेगी
ReplyDeleteवो मेरी हर ग़ज़ल में है वो मेरी हर नज़म बनती ,
ReplyDeleteमैं अपनी ही लिखी कितनी किताबों को नही समझा ।
-शानदार!!