आजकल वो
पैरों से लिखता है
राहों के कागज़ पर
एक अंतहीन कविता को
अन्तिम रूप देने की
इच्छा में
दरअसल वो
राख रहत
अपनी ही अस्थीआं लेकर
घूम रहा है
जीवन के इस
महासागर में शोड़ने के लिए
अक्सर वो ख़ुद को कहता है
मालूम है तुम को ...?
ये महायान धरती का
लेकर जा रहा तुम्हें
किस असीम की और
वो वार वार कान लगाकर
भीतर से कुश सुनने के इच्छा में
पैरों से लिखता जा रहा है
राहों के कागज़ पर
एक अंतहीन कविता ......
Sunday, May 3, 2009
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प्रिय मित्र
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अखिलेश शुक्ल्
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जिंदगी के फलसफे का क्या खूबसूरत बयान है!
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