सुनों जसबीर
मैं तुम्हें ढूंढने निकला हूँ
चेतन व अचेतन
के बीच बसे
छोटे से अन्तराल में
यहाँ ना नींद है
ना जागरण
ना झूठे चिहरे
ना कोई रंग
ना रूप
ना समय न स्थान
इस छोटे से अन्तराल में
मुझे तेरे
उस
मौलिक चिहरे की
तलाश है -जसबीर
जो किसी से
कहीं भी सम्बंधित नहीं
जो किसी भी रिश्ते का नाती नहीं
जो तेरे साथ
कहीं अकेला है
द्वंदरहत
ना कटा हुआ और
ना कहीं से
टूटा हुआ
इस लिए जसबीर
तूँ जियादा से जियादा
इसी अन्तराल में रहा कर
यहाँ ना दुख है
ना सुख है
ना आसूओं का से़लाब है
ना मुस्कराहट का सवाल है
ना जीवन है
ना मौत
क्यों के
मैं तुम्हें ढूंढने निकला हूँ
चेतन व अचेतन के बीच बसे
छोटे से अन्तराल में
Friday, May 8, 2009
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इतना सोचते हैं तो जरूर ढूँड लेंगे बहुत सुन्दर अभिव्यक्ती है शुभ्कामनायें
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