Saturday, March 14, 2009

तुम ने मंजिल

तुम ने मंजिल सोच ली हो रास्ता लाये कोई
किस तरह इस दोस्ती को छोड़ कर जाए कोई

तुम कभी बिरहा के सहरा में तो भटके ही नही
फिर भला तेरे लिए मल्हार क्यो गाये कोई

हमने अपने ही कहीं अंदर दबा दी आग सी
अब कहाँ उठता हुआ धुंआ नज़र आए कोई

मै भला पहचान पाऊँगा कहाँ चिहरा मेरा
अब अगर माजी से मुझको छीनकर लाये कोई

एक पल तेरा हो मेरा एक पल मेरा तेरा
ये न हो दो पल खड़े हो बीच आ जाए कोई

4 comments:

  1. सुन्दर रचना..स्वागत है..

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  2. sir ji manjil to pa..aege hi par asi umeed naa thi .wah wah ji wah kya baat hai or bhi likhiye sir ji

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  3. आपके अन्य पोस्ट भी पढ़े। वाह! जसबीर जी। आपका स्वागत है। आपकी अन्य रचान्यें और पढ़ने को मिलेंगी, इसी आशा के साथ।

    मेरे ख़याल से इस शेर में आप माझी नहीं माज़ी कहना चाह्ते थे।

    मै भला पहचान पाऊँगा कहाँ चिहरा मेरा
    अब अगर माझी से मुझको छीनकर लाये कोई

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