Monday, October 26, 2009

ग़ज़ल

मैं लोगों ने जो पहने उन नकाबों को नही समझा ।
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाबों को नहीं समझा ।

सवाले-यार था इतना के आख़िर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।

वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्मर ही उनके हिसाबों को नही समझा ।

वो मेरी हर ग़ज़ल में है वो मेरी हर नज़म बनती ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।

वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से दिखते,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।

मेरी किसमत के सूरज ने मूझे दीया अँधेरा है ,
मैं अब तक इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।

मेरी हर रात तो उनके खिआलों में गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाबों को नही समझा ।

3 comments:

  1. बेहतरीन ग़ज़ल...........

    बहुत अच्छे !

    वाह !

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  2. बहुत उम्दा गजल...उम्मीद है आगे भी इसी तरह की रचना पढ़ने को मिलेगी

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  3. वो मेरी हर ग़ज़ल में है वो मेरी हर नज़म बनती ,
    मैं अपनी ही लिखी कितनी किताबों को नही समझा ।

    -शानदार!!

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