Sunday, October 25, 2009

अपने आप को

अब मैं अपने गाँव की और
चल पड़ा हूँ दोस्त
इस गाँव की एक ही राह
जिसपे एक घर
खुलता है जिसका दरवाजा
मेरी पैडों की और
ऊडीक रही है माँ
दरवाजे पे दस्तकें...

मेरे दोस्त
अब तेरी आवाज़
एकसुर नही रही
यह किसी सूखम लैय को ढूँढती
अपने ही ताने-बाने में कहीं उलझ गयी है
गुम गयी है
ख़ामोश हो गयी है
तुम्हारे कानो में फसे छोर में ....

तुम्हारे कदम अब
लड़खड़ा चुकें है
तुम्हारे अपने ही साये ने
उनको छीन लिया हैं
जिसका आकार
तुम्हारी मैं -मैं से तंग आकर
किसी तूं को
समर्पित होने जा चुका है ...

तुम्हारा मन अब
बीयाबान जंगल है
जिसके हर पेड़ पर
तुमने अपना नाम लिखना है
और उनकी असली तड़प
दबा देनी है
अपनी ही सोच के
संबोधनों के तरक में ...

इसलिये मेरे दोस्त
मेरी बे-बफाई याद मत करना
भूल जाना मुझे
मैं तो ढूँढने चला था
उस देश की राह
यहाँ मेरी मैं ख़तम होती है
यहाँ से मेरे ही भीतर बसी
तूं शुरू होती है ....

ऊडीक रही है माँ
दरवाज़े पे दस्तकें ।




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