अब मैं अपने गाँव की और
चल पड़ा हूँ दोस्त
इस गाँव की एक ही राह
जिसपे एक घर
खुलता है जिसका दरवाजा
मेरी पैडों की और
ऊडीक रही है माँ
दरवाजे पे दस्तकें...
मेरे दोस्त
अब तेरी आवाज़
एकसुर नही रही
यह किसी सूखम लैय को ढूँढती
अपने ही ताने-बाने में कहीं उलझ गयी है
गुम गयी है
ख़ामोश हो गयी है
तुम्हारे कानो में फसे छोर में ....
तुम्हारे कदम अब
लड़खड़ा चुकें है
तुम्हारे अपने ही साये ने
उनको छीन लिया हैं
जिसका आकार
तुम्हारी मैं -मैं से तंग आकर
किसी तूं को
समर्पित होने जा चुका है ...
तुम्हारा मन अब
बीयाबान जंगल है
जिसके हर पेड़ पर
तुमने अपना नाम लिखना है
और उनकी असली तड़प
दबा देनी है
अपनी ही सोच के
संबोधनों के तरक में ...
इसलिये मेरे दोस्त
मेरी बे-बफाई याद मत करना
भूल जाना मुझे
मैं तो ढूँढने चला था
उस देश की राह
यहाँ मेरी मैं ख़तम होती है
यहाँ से मेरे ही भीतर बसी
तूं शुरू होती है ....
ऊडीक रही है माँ
दरवाज़े पे दस्तकें ।
Sunday, October 25, 2009
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