रोज़ यूं मर- मर के जीना ज़िन्दगी होती नही ।
हम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।
ज़र्द पत्ता हूँ बढाऊँ कांपता सा हाथ मैं ,
पर मेरी पागल हवा से दोस्ती होती नही ।
जिस की आँखों में भी झांकू भीड़ सी आये नज़र,
हम से इतने शोर में तो बंदगी होती नही ।
फूल खिलते ही गिरी हो लाश भंवरे की अगर ,
उस जगह कोई भी खुशबू बावरी होती नही ।
मैं मेरे अंदर से बोलूँ इस जगह कैसे रहूँ ,
दम मेरा घुटता यहाँ भी बंसरी होती नही ।
अब तो बस इत्हास बनना चाह रहा हर आदमी ,
अब किसी चिहरे पे कोई ताज़गी होती नही ।
पत्थरों के शहर न पत्थर बना डाला मुझे ,
अब किसी आईने से कोई दोस्ती होती नही ।
Friday, October 2, 2009
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रोज़ यूं मर- मर के जीना ज़िन्दगी होती नही ।
ReplyDeleteहम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।
सुन्दर अभिव्यक्ति ..!!
kis kis sher ki tarif karun..........har sher mein zindagi hakeekatein bayan ho rahi hain.
ReplyDeleteजसबीर जी यह गज़ल अच्छी लगी । आज मेरे ब्लॉग आलोचक पर एक लेख देखें "http://sharadkokaas.blogspot.com"
ReplyDeletevani .bandhna aur kokaas ji aap ka dhanabad
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