Friday, October 2, 2009

रोज़ यूं मर मर के जीना

रोज़ यूं मर- मर के जीना ज़िन्दगी होती नही ।
हम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।

ज़र्द पत्ता हूँ बढाऊँ कांपता सा हाथ मैं ,
पर मेरी पागल हवा से दोस्ती होती नही ।

जिस की आँखों में भी झांकू भीड़ सी आये नज़र,
हम से इतने शोर में तो बंदगी होती नही ।

फूल खिलते ही गिरी हो लाश भंवरे की अगर ,
उस जगह कोई भी खुशबू बावरी होती नही ।

मैं मेरे अंदर से बोलूँ इस जगह कैसे रहूँ ,
दम मेरा घुटता यहाँ भी बंसरी होती नही ।

अब तो बस इत्हास बनना चाह रहा हर आदमी ,
अब किसी चिहरे पे कोई ताज़गी होती नही ।

पत्थरों के शहर न पत्थर बना डाला मुझे ,
अब किसी आईने से कोई दोस्ती होती नही ।

4 comments:

  1. रोज़ यूं मर- मर के जीना ज़िन्दगी होती नही ।
    हम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।
    सुन्दर अभिव्यक्ति ..!!

    ReplyDelete
  2. kis kis sher ki tarif karun..........har sher mein zindagi hakeekatein bayan ho rahi hain.

    ReplyDelete
  3. जसबीर जी यह गज़ल अच्छी लगी । आज मेरे ब्लॉग आलोचक पर एक लेख देखें "http://sharadkokaas.blogspot.com"

    ReplyDelete