सारी दुनिया में ढूँड कर देखा ।
ख़ुद में ही गुलशन-ऐ-दहर देखा ।
सब दीवारों से बांहे निकली थी ,
जब भी मुद्दत के बाद घर देखा ।
आपके दिल से मेरे दिल तीकर ,
इतना लम्बा नहीं सफर देखा ।
जब भी दिए की रोशनी देखी,
अपने माथे के दाग पर देखा ।
उसको पडतें किताब की मानिद,
जिसको भी हमने इक नज़र देखा ।
चार ही लोग आखिरी देखे ,
फिर ना' जसबीर ' हमसफ़र देखा ।
Sunday, October 11, 2009
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वाह !
ReplyDeleteअच्छी ग़ज़ल..........
ख़ासकर ये शे'र दिल में उतर गया.......
सब दीवारों से बांहे निकली थी ,
जब भी मुद्दत के बाद घर देखा ।
जसबीर भाई, अच्छी लगी यह गज़ल , आपकी जानकारी के लिये ब्लॉग आलोचक मे नई पोस्ट देखे और विचार प्रकट करें
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