Thursday, September 24, 2009

काश वो वक़्त

काश वो वक़्त पे कभी आए ।
और फिर देर तक न घर जाए ।

घर के कोनों में ढूंढ़ता हूँ मैं ,
बीता लम्हा कोई तो मिल जाए ।

अब तो मेरा पता ही है गुम सा ,
अब वो मुझ को कहाँ नही पाए ।

दोस्तों- दुश्मनों कों क्या कहना,
हम ने तो ख़ुद से गम बड़े पाए ।

ज़र्द पत्तों का घर नही होता ,
फिर बहारों का ख़त कहाँ आए ।

ज़िन्दगी मुझ को ढूंढ़ती फिर से ,
साथ अब ले के मौत के साये ।

लोग तो यूँ ही भागे फिरते हैं ,
ख़ुद से आगे कोई कहाँ जाए ।

मैं तो बस जाम- जाम कहता हूँ ,
यूँ ही साकी के हाथ घबराए ।

मुझ को आमद अभी कहाँ होती ,
यह तो कुछ शब्द खेलने आए ।

5 comments:

  1. घर के कोनों में ढूंढ़ता हूँ मैं ,
    बीता लम्हा कोई तो मिल जाए ।


    -काश!!


    बहुत खूब!

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  2. वाह !क्या बात है।हर लफ़्ज उम्दा है।गहराई इतनी की दिल डूब ही गया।

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  3. kis kis pankti ki tarif karoon.......har pankti ,har lafz dil ko choo gaya aur usmein chupe bhav to gazab ke hain.

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  4. वाह! बहुत खूब। मत्ला बहुत खूबसूरत।

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  5. बहुत सुंदर हमेशा की तरह..ये पंक्तियाँ बहुत सुंदर लगीं:

    ज़र्द पत्तों का घर नही होता ,
    फिर बहारों का ख़त कहाँ आए ।
    शैलजा

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