काश वो वक़्त पे कभी आए ।
और फिर देर तक न घर जाए ।
घर के कोनों में ढूंढ़ता हूँ मैं ,
बीता लम्हा कोई तो मिल जाए ।
अब तो मेरा पता ही है गुम सा ,
अब वो मुझ को कहाँ नही पाए ।
दोस्तों- दुश्मनों कों क्या कहना,
हम ने तो ख़ुद से गम बड़े पाए ।
ज़र्द पत्तों का घर नही होता ,
फिर बहारों का ख़त कहाँ आए ।
ज़िन्दगी मुझ को ढूंढ़ती फिर से ,
साथ अब ले के मौत के साये ।
लोग तो यूँ ही भागे फिरते हैं ,
ख़ुद से आगे कोई कहाँ जाए ।
मैं तो बस जाम- जाम कहता हूँ ,
यूँ ही साकी के हाथ घबराए ।
मुझ को आमद अभी कहाँ होती ,
यह तो कुछ शब्द खेलने आए ।
Thursday, September 24, 2009
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घर के कोनों में ढूंढ़ता हूँ मैं ,
ReplyDeleteबीता लम्हा कोई तो मिल जाए ।
-काश!!
बहुत खूब!
वाह !क्या बात है।हर लफ़्ज उम्दा है।गहराई इतनी की दिल डूब ही गया।
ReplyDeletekis kis pankti ki tarif karoon.......har pankti ,har lafz dil ko choo gaya aur usmein chupe bhav to gazab ke hain.
ReplyDeleteवाह! बहुत खूब। मत्ला बहुत खूबसूरत।
ReplyDeleteबहुत सुंदर हमेशा की तरह..ये पंक्तियाँ बहुत सुंदर लगीं:
ReplyDeleteज़र्द पत्तों का घर नही होता ,
फिर बहारों का ख़त कहाँ आए ।
शैलजा