Saturday, August 22, 2009

कब कहाँ

कब कहाँ कैसे हुआ कुछ भी पता चलता नहीं
है अँधेरा हर तरफ़ दीया कहीं जलता नहीं

आज तेरा वक़्त है तुम जान लों इतना मगर
वक़्त का कब वक़्त आ जाए पता चलता नहीं

मै सुनूँ आवाज़ तेरी अपने ही अंदर कहीं
पर तूं अंदर है कहाँ मेरे पता चलता नहीं

जिसको भी मिलता हूँ लगता है कहीं देखा हुआ
खाक़ किस किस भेस में मिलती पता चलता नहीं

तुम जला दोगे मुझे पर शब्द मेरे ना जले
मैं किताबे -जिंदगी का हूँ सफा जलता नहीं

3 comments:

  1. वाह !
    वाह !
    क्या ख़ूब ग़ज़ल !
    बहुत ख़ूब ग़ज़ल !

    आज तेरा वक़्त है तुम जान लों इतना मगर
    वक़्त का कब वक़्त आ जाए पता चलता नहीं
    ________बधाई !

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  2. बहुत ख़ूब जसबीर जी। हर शेर सुंदर है। बस एक दो छोटी बातें-

    पहले शेर में तू और तुम का एक ही मिस्रे में एक साथ इस्तेमाल हुआ है, जो तकनीकी नज़र से सही नहीं है। आप चाहें तो ’तुम’ को ’ये’ से बदल सकते हैं।

    और क़ाफ़िया के कुछ और इस्तेमाल होते (जैसे, मलता, पलता, खलता आदि) तो चार चांद लग जाता।

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