कब कहाँ कैसे हुआ कुछ भी पता चलता नहीं
है अँधेरा हर तरफ़ दीया कहीं जलता नहीं
आज तेरा वक़्त है तुम जान लों इतना मगर
वक़्त का कब वक़्त आ जाए पता चलता नहीं
मै सुनूँ आवाज़ तेरी अपने ही अंदर कहीं
पर तूं अंदर है कहाँ मेरे पता चलता नहीं
जिसको भी मिलता हूँ लगता है कहीं देखा हुआ
खाक़ किस किस भेस में मिलती पता चलता नहीं
तुम जला दोगे मुझे पर शब्द मेरे ना जले
मैं किताबे -जिंदगी का हूँ सफा जलता नहीं
Saturday, August 22, 2009
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वाह !
ReplyDeleteवाह !
क्या ख़ूब ग़ज़ल !
बहुत ख़ूब ग़ज़ल !
आज तेरा वक़्त है तुम जान लों इतना मगर
वक़्त का कब वक़्त आ जाए पता चलता नहीं
________बधाई !
बहुत ख़ूब जसबीर जी। हर शेर सुंदर है। बस एक दो छोटी बातें-
ReplyDeleteपहले शेर में तू और तुम का एक ही मिस्रे में एक साथ इस्तेमाल हुआ है, जो तकनीकी नज़र से सही नहीं है। आप चाहें तो ’तुम’ को ’ये’ से बदल सकते हैं।
और क़ाफ़िया के कुछ और इस्तेमाल होते (जैसे, मलता, पलता, खलता आदि) तो चार चांद लग जाता।
THANKS MANSI
ReplyDeleteI WILL TRY TO COMPLETE THIS GAZAL
JASBIR