दर्द जब से हुआ है अम्बर सा
दिल हमारा हुआ समुन्दर सा
मेरे माथे पे जल रहा दीया
जैसे हो मयकदे में मन्दिर सा
तीर आँखों पे सब के लगते हैं
कौन जीता है पर स्वयंवर सा
तूँ कहाँ ढूंढ़ने मुझे निकला
मैं नहीं हूँ किसी अडम्बर सा
कह रहा है मुझे वो आईने से
अब तूँ लगता नहीं सिकंदर सा
जिंदगी अब के साल यूं गुज़री
हादसों से भरा कैलेंडर सा
Saturday, August 1, 2009
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मेरे माथे पे जल रहा दीया
ReplyDeleteजैसे हो मयकदे में मन्दिर सा
waah
gazab !
सुंदर भावों से भरी ग़ज़ल...वाह
ReplyDeletebhavpoorna gazal.
ReplyDeletebahut hi sahi bat bilkul jindagi ka kitab hai aapaki yah rachana.....badhaaee
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