ग़ज़ल
अब तो मैं तेरे सहारे भी संभल सकता नहीं |
थक गया हूँ दौड़ कर अब और चल सकता नहीं |
वो सियारा है अगर तो रोशनी में वो जले ,
मैं अँधेरा हूँ किसी के साथ जल सकता नहीं |
एक दिन छुआ छूयाई में ही साया खो गया ,
मुझको लगता था मेरा सूरज तो ढल सकता नहीं |
अजनभी हूँ अजनभीयत सी तबीयत बन गयी ,
अब मेरा कोई भी रिश्ता मुझको छ्ल सकता नहीं |
उसने राहें छीन लीं हैं पर उसे मालुम नहीं ,
ख्वाब तो बस ख्वाब हैं उनको निगल सकता नहीं |
एक उलझन से निकल "जसबीर " बच ना पाओगे ,
उलझनों का ताज तो सर से निकल सकता नहीं |
अब तो मैं तेरे सहारे भी संभल सकता नहीं |
थक गया हूँ दौड़ कर अब और चल सकता नहीं |
वो सियारा है अगर तो रोशनी में वो जले ,
मैं अँधेरा हूँ किसी के साथ जल सकता नहीं |
एक दिन छुआ छूयाई में ही साया खो गया ,
मुझको लगता था मेरा सूरज तो ढल सकता नहीं |
अजनभी हूँ अजनभीयत सी तबीयत बन गयी ,
अब मेरा कोई भी रिश्ता मुझको छ्ल सकता नहीं |
उसने राहें छीन लीं हैं पर उसे मालुम नहीं ,
ख्वाब तो बस ख्वाब हैं उनको निगल सकता नहीं |
एक उलझन से निकल "जसबीर " बच ना पाओगे ,
उलझनों का ताज तो सर से निकल सकता नहीं |