Sunday, August 8, 2010

मैं पत्थर हूँ ... ग़ज़ल

मैं पत्थर हूँ मुझे जीना नहीं भगवान सा बनकर ।
मुझे रहना नहीं खुद में कोई मेहमान सा बनकर ।

कोई जीता यां हारा ख़ाक मेरी ही उडी हर पल ,
जिया मैं ज़िन्दगी को जंग का मैदान सा बनकर ।

मेरी हर सोच में रहता है यह बाज़ार दुनिया का ,
मैं अप्पने घर पड़ा रहता हूँ बस सामान सा बनकर ।

मेरे अंदर मेरे चिहरों में इक ऐसा भी चिहरा है ,
जो मुझ को रोज़ मिलता है मगर अनजान सा बनकर ।

रहा हूँ मैं तेरी दुनिया में जैसे मैं नहीं कुछ भी ,
रहा मैं दूर मैं मैं से कहीं गुमनाम सा बनकर ।

कहाँ कैसे मिलु तेरा कोई अरमान सा बनकर ,
अभी रहता हूँ अप्पने पास मैं मेहमान सा बनकर ।

Saturday, June 26, 2010

तुम ..मैं

तुम जीत ही गयी
.......
मुझे खेलना नहीं आता
मैं जानता हूँ ...
बस खेलते हुए
खेल खेल में हार जाता हूँ मैं .....

पर
तुम ??
हर वार जीत जाती हो
तुम ... यानि कौन ?
बहुत चिहरे हैं
इस
तुम के पीछे
सब के सब
अप्पने ही लिए खेले
एक जंग की तरह खेले
और ....
जीतते गये
हर वार ............
इश्तहार बदलते रहे
कभी कुश ....
कभी कुश ....
............
जाते रहे
जाना कहाँ होता है
.....
शायद
जाने हुए
अनजाने सफर में
पता नहीं ...
मैं हर वार
हारी हुई जंग
जीत कर आता हूँ
और अप्पने ही अंदर
खुद को मुर्दा पाता हूँ
..........




Thursday, April 22, 2010

कुछ बातें

मैं आज हूँ
तज़रबे रहत आज
मेरा अतीत
मेरे आज में
फैला हुआ है
मेरा भविष
मेरे आज को
निगल जाना चाहता है
कुछ बातें
समझ आने के बहुत करीब हैं....

जाग कर देखता हूँ
किसी पल को
मेरे माथे पे
बैठा पाता हूँ
आँखें बंद करता हूँ
कोई माथे का दरवाज़ा खोल
भीतर ही भीतर
सीड़ीआँ उतरता है
पल पल की ठक -ठक
सिर में गूँज रही है
कुछ कुछ बातें समझ आने लगीं हैं .....

कैसी मैं है
जो बिखरती जा रही है
कैसी तूँ है
जो मुझे खंडित नहीं होने देती
असधारण पल हैं
ना मैं है
ना कोई कोशिश
ना कुछ होने का एहसास है
कुछ कुछ बातें समझ आ गयी हैं .....

कुछ बातें समझ आने के
बहुत करीब हैं ...
कुछ बातें समझ कर भी
समझ नहीं आती ... ।

Saturday, April 10, 2010

मेरे अंदर जो औरत है

मेरे अंदर जो औरत है
बिलकुल तुम्हारे जैसी है
इसलिए शायद
वो तुम से मिलने के लिए बेचैन है
मैं वार वार उसे मिलाने के लिए
तेरी और खींचा चला आता हूँ
लेकिन हर वार उसकी तड़प को
दो- गुना करके
अपने ही अंदर
कहीं और गहरा पाता हूँ ....

तुम मुझे जब पहली वार मिली
तो मुझे लगा
जैसे मैं तुम्हे बहुत पहले से
जानता हूँ ...पहचानता हूँ
दूसरी वार मुझे लगा
जैसे कोई अनजानी धरती
हमारे बीच है
तीसरी वार हमने कोशिश करके
एक सांझी धरती ढूंढ ली थी
जिस पर हम तीनो खड़े हो सकते थे .....

फिर अचानक... एक दिन
तुम्हारे अंदर का आदमी
मुझे मिलने आया
सच कहूं ...
वो मुझे बिलकुल नहीं जानता था
वो मुझे बिलकुल नहीं पहचानता था
मैं उसके जैसा कहीं से था भी नहीं
वो लौट गया था शायद
या तुमने उसे अपने ही अंदर
कहीं बन्द कर लिया था .....

अब ...जब भी हम मिलते हैं
तो हम त्रिकोण के मिलन -बिन्दुओं पर खड़े होकर
एक दूसरे को निहारते हैं
एक बिंदु ...
दूर कहीं बहुत दूर
हमारे निकट आने की कोशिश में
और भी सदीओं दूर चला जाता है
उस वकत ...
हमारे नीचे की सांझी धरती में
कुछ रेखाए उभर आती है .... ।

लेकिन अब ...
जब मैं जागती आँखों से देखता हूँ
तो पाता हूँ .....
के मेरे अंदर जो औरत है
बिलकुल तुम्हारे जैसी नहीं है ...
और तुम्हारे अंदर जो आदमी है
कितना मुझसे मिलता है... ।

Sunday, March 21, 2010

जब से

जब से में तेरे साज़ की चुप हूँ ।
तब से अपनी आवाज़ की चुप हूँ ।

मुझ को मालुम नहीं कहाँ जाना
इस लिए हर आगाज़ की चुप हूँ ।

अपने ही आप से में लड़ता हूँ ,
जाने किस किस मुहाज़ की चुप हूँ ।

मैं तेरे वासते जिया हर पल ,
मैं तो उम्मरे-दाराज़ की चुप हूँ ।

तुम में हर पल ही जो बदल जाता ,
मैं तेरे उस मजाज़ की चुप हूँ ।

मैं ना सुकरात हूँ ना सरमद कोई,
पर खुदा के ही राज़ की चुप हूँ ।

Thursday, January 7, 2010

ख़त

कभी तो ख़त आयेगा
अनजाने सप्पनों के गठरी उठाऐ
और मेरे घर की दहलीज़ पे आकर
अपना बोझ गिराएगा
कभी तो ख़त आयेगा .....

तरह तरह के गीत सुनाएगा
कई भाषाओँ का जिकर करेगा
मेरे आँसूओं के रंगों से
अपना लिबास मिलाएगा
कभी तो ख़त आयेगा .....

अपनी होंद को जताकर
मेरे माथे पर उभर आये
प्रशन-चिन्हों की वियाख्या करेगा
बीते लम्हों को याद कराएगा
कभी तो ख़त आयेगा .....

कई यादें कई कहानीयां
पलों छिनो में बियान कर जाएगा
वकत की चरखरी से
उमर की डोर उतारेगा
कभी तो ख़त आयेगा .....

अनचाहे सपनों के गठरी उठाये ...