Sunday, December 27, 2009

रेखा से सिफ़र तक

और मैं
फिर सिफ़र बन गया
एक वकत था
जब काल की लम्बी सड़क पर
मैं एक सिफ़र था
महज़ सिफ़र
फिर किसी के हसीन पाँव
इस सिफ़र पर पड़े
और मैं सिफ़र से
एक सीधी रेखा बन गया ...

फिर शुरू हुआ
इस रेखा का सफ़र
तेरे शहर के रंगीन चित्र पर
पर मैं अकेला नहीं था
मेरे साथ कई और रेखाएँ भी
चल रहीं थी
बिलकुल मेरे समांतर...

मैं इंतज़ार में था
संधूरी पद चाप को
औढ कर बैठा
सफ़र की होंद का
प्रशन चिन्ह पहने
बाकी रेखाओं की ही तरह ...

फिर मैंने खुद
इन्ही आँखों से देखा
एक सिफ़र को सीधी रेखा
बनते हुए
बिलकुल मेरी तरह ...

और मैं फिर
सिफ़र बन गया
फिर शुरू हुआ
काल की लम्बी सड़कों पर
इस सिफ़र का सफ़र
जमाह घटाओ की होंद से
बहुत दूर
एक
अन्नत सफ़र की तलाश में ।

Sunday, December 20, 2009

हुआ तकसीम

हुआ तकसीम कितनी वार मैं हांसिल नहीं कोई।
मैं चलता जा रहा हूँ पर मेरी मंज़िल नहीं कोई ।

मेरे अंदर मुहब्बत करने वाला आदमी था जो ,
वो अपनी मौत ही मारा गया कातिल नहीं कोई ।

बड़ा सोचा था बस तैरेंगे आँखों के सुमन्दर में ,
मगर डूबे तो फिर आया नज़र साहिल नहीं कोई ।

हमेशा नींद के दरवाज़े पे मैं ठहर जाता हूँ ,
मुझे लगता मेरे खाबों में भी महफ़िल नहीं कोई ।

खुदा के पास रहता हूँ उसी के साथ चलता हूँ
वो मुझ को फिर भी कहता है मेरा कामिल नहीं कोई ।


हमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
हमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।

Thursday, December 10, 2009

एक परदा है

एक परदा है
भीतर ही भीतर
लटक रहा
मूलाधार से सहस्रार तक
सात छल्ले घूम रहें है
अपने सफर में
धरती की तरह
एक सीधी रेखा में
एक महा सूर्य के इर्द -गिर्द
बाहर से इक आवाज़ आती है
जो कह रही है
उसे महा -सूर्य दिखता नही
ऊर्जा घूमती हुई महसूस नही होती
निगल गयी हैं सब
दो आँखे खुशक सी
बोल रहीं हैं भीतर
सब भ्रमजाल है ....

तीसरी आँख जख्मी है
फ़िर भी तर है
आंसूओं से
बाहर देखती है
कुछ भी साफ दिखता नहीं
कुछ हो रहा है
पल पल बेहोशी की यात्रा में लींन है
एक दौड़ है
सभी दौड़ रहें हैं
कहाँ जाना है
कुछ पता नहीं
रो रही है तीसरी आँख
देख रही है
बाहर का भ्रमजाल ....

एक परदा है
दोनों और ज़िन्दगी है
इक दूजे से झगड़ रही है
अपने अपने भ्रमजाल को
कोस रही है
परदा गिरने तक
पारदर्शी होने तक ॥