Saturday, June 26, 2010

तुम ..मैं

तुम जीत ही गयी
.......
मुझे खेलना नहीं आता
मैं जानता हूँ ...
बस खेलते हुए
खेल खेल में हार जाता हूँ मैं .....

पर
तुम ??
हर वार जीत जाती हो
तुम ... यानि कौन ?
बहुत चिहरे हैं
इस
तुम के पीछे
सब के सब
अप्पने ही लिए खेले
एक जंग की तरह खेले
और ....
जीतते गये
हर वार ............
इश्तहार बदलते रहे
कभी कुश ....
कभी कुश ....
............
जाते रहे
जाना कहाँ होता है
.....
शायद
जाने हुए
अनजाने सफर में
पता नहीं ...
मैं हर वार
हारी हुई जंग
जीत कर आता हूँ
और अप्पने ही अंदर
खुद को मुर्दा पाता हूँ
..........