मुझे अब आ गया है ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कहना ।
जहाँ मिल जाये कुछ मस्ती उसे ही मयकदा कहना ।
मैं इक कतरा चला हूं मुस्करा कर मापने सागर ,
मेरी दीवानगी साहिल को मेरी अलविदा कहना ।
जो दरिया गुनगुनाता है नदी जब राग सा छेड़े,
उसे जा के समुन्दर की ज़रा आबो-हवा कहना।
मैं खुद अप्पना पता बनकर ही रहता हूं कहीं खुद में ,
कहाँ जायज़ है फिर मेरा खुदी को लापता कहना ।
बिना मांगे तुम्हे सबकुछ यहाँ कुदरत से मिलता है ,
इसे अपनी दुआ समझो या फिर उसकी अदा कहना।
बड़ी मुश्किल से माथे की लकीरों को बचाया है ,
बहुत मुश्किल था पत्थर को यूँ अपना आईना कहना।
किसी के भी लिए दिल में कभी रखता नहीं रंजिश ,
मुझे आता नहीं जसबीर खुद को बे-बफा कहना ।
Sunday, March 27, 2011
Sunday, March 6, 2011
प्रशन पत्र
ऐ मेरे खुदा
तुम ने जो
ज़िन्दगी का प्रशन पत्र
सुलझाने के लिए दिया था
मुझे समझ नहीं आया....
मुझे पता नहीं चल सका
ये आस पास
चलते फिरते
ठहरते दौड़ते
कौन लोग थे ?......
मुझे पता नहीं चला
ज़िन्दगी क्या ?
मौत क्या ?
तृष्णा क्या ?
त्रिप्ती क्या ?
मैं कौन ?
तूँ कौन ?
मुझे बिलकुल
समझ नही आया
रिश्तों का ताना -बाना
बनते टूटते
सम्बधों के संबध
डूबते तैरते
अहसास
रोते चीखते ख्यालात
मुहब्बत
नफरत के जज़्बात .......
मुझे समझ नहीं आई
ये भाग-दौड़
कहाँ पहुचना ....?
कहाँ जाना ...?
आखिर
क्या पाना ?........
पता ही ना चला
जीवन ...
कब गुज़र गया
अखबार पड़ते पड़ते
घर की दफ्तरी
परिकर्मा करते करते
साँसों के दुःख जरते जरते
कपड़ों के रंग
चिहरे पे मलते मलते
जूतों के सपने पड़ते पड़ते .......
मुझे समझ नहीं आई
इस ऊतर पत्रिका पर
क्या लिखू
जो सोचा
बिखरता गया
हर शब्द
अप्पने ही अर्थों में
सिमटता गया .......
पर मैंने भी
अपने ही ढंग से जिया
बिना किसी खुआहिश के
बिना किसी प्राप्ति के
तृष्णा और तृप्ति के
इस युद्ध की
जैसे मुझे
खबर ही नहीं .........
मैं तेरी इस
कक्षा का
सब से पीछे
बैठा विदार्थी
जो सारा वकत
एक अफरा-तफरी
देखता रहा
और सोचता रहा
प्रशनों को
बिना किसी उतर के
और चल पड़ा
तुमे अपनी
उतर -पत्रिका देने .....
इस लिए
ऐ मेरे खुदा
तुम अपने
इस नालायक विदार्थी को
शून्य बटा सौ
दे सकते हो .....
मेरी उतर -पत्रिका
देख कर
क्या सोच रहे हो ?
क्यों सोच रहे हो ?
मैं जनता हूँ ...
तुम सोच रहे हो
इसका क्या करू ?
किस रूप में ढालूँ इसे .....
कहीं भी भेज दो
ऐ मेरे खुदा
पर मेरी
एक गुजारिश है
मुझे इंसान मत बनाना
इंसान होने की पीड़ा
मैं जान गया हूँ
पहचान गया हूँ .....
तुम
मुझे
कोई भी आकार दे दो
यहाँ तुम मुझे
पहचान सको
मैं तुमे
जान सकूं ........
नहीं
सुलझा सका
ज़िन्दगी का
प्रशन- पत्र
जो तुम ने मुझे
सुलझाने के लिए
दिया था ।
तुम ने जो
ज़िन्दगी का प्रशन पत्र
सुलझाने के लिए दिया था
मुझे समझ नहीं आया....
मुझे पता नहीं चल सका
ये आस पास
चलते फिरते
ठहरते दौड़ते
कौन लोग थे ?......
मुझे पता नहीं चला
ज़िन्दगी क्या ?
मौत क्या ?
तृष्णा क्या ?
त्रिप्ती क्या ?
मैं कौन ?
तूँ कौन ?
मुझे बिलकुल
समझ नही आया
रिश्तों का ताना -बाना
बनते टूटते
सम्बधों के संबध
डूबते तैरते
अहसास
रोते चीखते ख्यालात
मुहब्बत
नफरत के जज़्बात .......
मुझे समझ नहीं आई
ये भाग-दौड़
कहाँ पहुचना ....?
कहाँ जाना ...?
आखिर
क्या पाना ?........
पता ही ना चला
जीवन ...
कब गुज़र गया
अखबार पड़ते पड़ते
घर की दफ्तरी
परिकर्मा करते करते
साँसों के दुःख जरते जरते
कपड़ों के रंग
चिहरे पे मलते मलते
जूतों के सपने पड़ते पड़ते .......
मुझे समझ नहीं आई
इस ऊतर पत्रिका पर
क्या लिखू
जो सोचा
बिखरता गया
हर शब्द
अप्पने ही अर्थों में
सिमटता गया .......
पर मैंने भी
अपने ही ढंग से जिया
बिना किसी खुआहिश के
बिना किसी प्राप्ति के
तृष्णा और तृप्ति के
इस युद्ध की
जैसे मुझे
खबर ही नहीं .........
मैं तेरी इस
कक्षा का
सब से पीछे
बैठा विदार्थी
जो सारा वकत
एक अफरा-तफरी
देखता रहा
और सोचता रहा
प्रशनों को
बिना किसी उतर के
और चल पड़ा
तुमे अपनी
उतर -पत्रिका देने .....
इस लिए
ऐ मेरे खुदा
तुम अपने
इस नालायक विदार्थी को
शून्य बटा सौ
दे सकते हो .....
मेरी उतर -पत्रिका
देख कर
क्या सोच रहे हो ?
क्यों सोच रहे हो ?
मैं जनता हूँ ...
तुम सोच रहे हो
इसका क्या करू ?
किस रूप में ढालूँ इसे .....
कहीं भी भेज दो
ऐ मेरे खुदा
पर मेरी
एक गुजारिश है
मुझे इंसान मत बनाना
इंसान होने की पीड़ा
मैं जान गया हूँ
पहचान गया हूँ .....
तुम
मुझे
कोई भी आकार दे दो
यहाँ तुम मुझे
पहचान सको
मैं तुमे
जान सकूं ........
नहीं
सुलझा सका
ज़िन्दगी का
प्रशन- पत्र
जो तुम ने मुझे
सुलझाने के लिए
दिया था ।
Subscribe to:
Posts (Atom)