ज़िन्दगी के जूऐ में
सब हौंसले हार के
घर परत आना
गली के मोड़ पे
बापू की खांसी पहचान लेना
घर के दरवाज़े से
माँ की आंहे सुन लेना
किसी कोने में उड़ते
बहन के आंसू देख लेना
दीवार में फसें छोटे भाई के
हाथ पकड़ लेना
कुछ इस तरह ही होता है
जब बरसों बाद
घर से अपनी रोशनी ढूँढने गया
घर का चिराग
किसी सुबह को
दुनिया के तमाम अंधेरे
लेकर लौट आए
और अपनी आंखों से
खुश्क सा गिला करे ... ।
Saturday, November 28, 2009
Sunday, November 22, 2009
सत्यवादी
वो जब भी चीखता
तो बस होठों तक चीखता
और जब भी रोता
दिल की भीतरी परतों तक रोता
उसकी आंखों की उदासी में
बेचैनी भी थी
और गयी रात का सपना भी
जो रात भर
उसके साथ होली खेलता रहता
उसकी जीभ पर
कई अनकहे शब्द थे
जो उसके अपने ही
खून से लथपथ थे
पर फ़िर भी वो जी रहा था
अपनी खामोशी के क़त्लगाह में
यहाँ और कोई भी नही था
वो ख़ुद भी नही ... ।
तो बस होठों तक चीखता
और जब भी रोता
दिल की भीतरी परतों तक रोता
उसकी आंखों की उदासी में
बेचैनी भी थी
और गयी रात का सपना भी
जो रात भर
उसके साथ होली खेलता रहता
उसकी जीभ पर
कई अनकहे शब्द थे
जो उसके अपने ही
खून से लथपथ थे
पर फ़िर भी वो जी रहा था
अपनी खामोशी के क़त्लगाह में
यहाँ और कोई भी नही था
वो ख़ुद भी नही ... ।
Wednesday, November 11, 2009
पत्थरों के इन घरों में
पत्थरों के इन घरों में तो नज़ाकत ही नहीं ।
किस तरह का शहर है जिस में मुहब्बत ही नहीं ।नाम ना लूँगा कभी बस भूल जाऊँगा उसे ,
पर यह लगता है मेरी ऐसी तबीयत ही नहीं।
पहले आंखों में मुहब्बत फ़िर बहारें पतझडे ,
इस जगह कोई भी ऐसी तो रवायत ही नहीं ।
जब किसी ने हाल पुछा अपना ये उत्तर रहा ,
हाल अपना ठीक है बस दिल सलामत ही नहीं ।
सब उमीदों के दिए मैं तो भुझाने को चला ,
अब कोई आएगा लगता ऐसी सूरत ही नहीं ।
अब आज़ादी ही आज़ादी हर तरफ है दोस्तो,
अब किसी दिल की किसी दिल पे हकुमत ही नहीं।
पर यह लगता है मेरी ऐसी तबीयत ही नहीं।
पहले आंखों में मुहब्बत फ़िर बहारें पतझडे ,
इस जगह कोई भी ऐसी तो रवायत ही नहीं ।
जब किसी ने हाल पुछा अपना ये उत्तर रहा ,
हाल अपना ठीक है बस दिल सलामत ही नहीं ।
सब उमीदों के दिए मैं तो भुझाने को चला ,
अब कोई आएगा लगता ऐसी सूरत ही नहीं ।
अब आज़ादी ही आज़ादी हर तरफ है दोस्तो,
अब किसी दिल की किसी दिल पे हकुमत ही नहीं।
Monday, November 9, 2009
तलाश
आज उसको
किसी की
तलाश थी... क्योके
वो पहली वार गुम हुआ था
अजनभी चिहरे भी आज उसको
अपने अपने लगते
पर वो अपनापन
उसके दिल की अंदरूनी परतों से
बाहर ना आ सका
ख़ुद से घबराकर
आख़िर उसने आवाज़ दी
सभी अजनबी चिहरे
उसकी तरफ दौड़े
अपना अपना रास्ता
पूछने के लिए ... ।
किसी की
तलाश थी... क्योके
वो पहली वार गुम हुआ था
अजनभी चिहरे भी आज उसको
अपने अपने लगते
पर वो अपनापन
उसके दिल की अंदरूनी परतों से
बाहर ना आ सका
ख़ुद से घबराकर
आख़िर उसने आवाज़ दी
सभी अजनबी चिहरे
उसकी तरफ दौड़े
अपना अपना रास्ता
पूछने के लिए ... ।
Saturday, November 7, 2009
कविता
इन्कलाब की और
------------------------------
आज उसने अपने नीचे से
वो विछोना भी निकाल दीया
जिसपे उसके
पाक जिस्म का
नकशा था ...
देखते ही देखते
वो उसको अपने कन्धों पे रखकर
एक कूड़ेदान में फैंक आया
यह सोच कर
के उसकी उम्र से वो
बहुत छोटा निकला वो ...
फिर उसको अपने धर्म
का ख्याल आया
रवायतो की और ध्यान गया
फ़िर उसने उसको कूड़ेदान से उठाया
और बड़े ही प्रेमपूर्वक उसको जलाया
राख को इकठा कीया
और चल पड़ा
राजधानी के माथे पर
तिलक लगाने के लिए
लोग कहते हैं
वो कभी वापिस नही आया ... ।
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आज उसने अपने नीचे से
वो विछोना भी निकाल दीया
जिसपे उसके
पाक जिस्म का
नकशा था ...
देखते ही देखते
वो उसको अपने कन्धों पे रखकर
एक कूड़ेदान में फैंक आया
यह सोच कर
के उसकी उम्र से वो
बहुत छोटा निकला वो ...
फिर उसको अपने धर्म
का ख्याल आया
रवायतो की और ध्यान गया
फ़िर उसने उसको कूड़ेदान से उठाया
और बड़े ही प्रेमपूर्वक उसको जलाया
राख को इकठा कीया
और चल पड़ा
राजधानी के माथे पर
तिलक लगाने के लिए
लोग कहते हैं
वो कभी वापिस नही आया ... ।
Sunday, November 1, 2009
ग़ज़ल
चलो इक वार फिर से दुश्मनी में दोस्ती ढूँढे ।
किसी टूटे हुए से बांस में इक बांसुरी ढूँढे ।
मैं यूँ तो अपने अंदर उस खुदा को देखना चाँहू,
मगर उससे भी पहले क्यूं ना मन की खलबली ढूँढे ।
हमरे इश्क की तो दास्ताँ थी एक लम्हे की ,
मगर हम उम्र -भर उसमे ही अपनी ज़िन्दगी ढूँढे ।
मुहब्बत बनते बनते बन गयी विओपार सी अब तो ,
बहुत से लोग फ़िर भी हैं जो इसमे बंदगी ढूँढे ।
वो मुझ को जब भी मिलते हैं कई चिहरे लिए होते ,
मगर हम इन मखोटों में भी कितनी सादगी ढूँढे ।
चलो शब्दों में कहते हैं कोई तो दास्ताँ अपनी ,
यह हो सकता है अर्थों को कोई तशनालबी ढूँढे ।
कभी तो सोच भी मुझको हकीकत सी ही लगती है ,
जो हुया ही नही उसमे भी हम तो ज़िन्दगी ढूँढे ।
किसी टूटे हुए से बांस में इक बांसुरी ढूँढे ।
मैं यूँ तो अपने अंदर उस खुदा को देखना चाँहू,
मगर उससे भी पहले क्यूं ना मन की खलबली ढूँढे ।
हमरे इश्क की तो दास्ताँ थी एक लम्हे की ,
मगर हम उम्र -भर उसमे ही अपनी ज़िन्दगी ढूँढे ।
मुहब्बत बनते बनते बन गयी विओपार सी अब तो ,
बहुत से लोग फ़िर भी हैं जो इसमे बंदगी ढूँढे ।
वो मुझ को जब भी मिलते हैं कई चिहरे लिए होते ,
मगर हम इन मखोटों में भी कितनी सादगी ढूँढे ।
चलो शब्दों में कहते हैं कोई तो दास्ताँ अपनी ,
यह हो सकता है अर्थों को कोई तशनालबी ढूँढे ।
कभी तो सोच भी मुझको हकीकत सी ही लगती है ,
जो हुया ही नही उसमे भी हम तो ज़िन्दगी ढूँढे ।
धरती माँ
धरती तो चेतन है
जागी हुई
और परिकर्मा कर रही है
सदीओं का पहन के सुनहरी मुकुट
पर आर्शीवाद देने के लिए मजबूर है
सरहद के दोनों ही तरफ़
लड़ रहे बहादुर जवानो को
क्यूके
वो तो माँ है ...
पर हम ने
इस माँ को बाँट रखा है
छोटे छोटे टुकडों में काट रखा है
चिट्टे,काले,पीले और भूरे रंगों में
इसको शिंगार के
पूरी धरती में वो रंग
ढूँढने लगते हैं
जो हमारे मन में बसा हो ...
कई वार
हम इस माँ के
पैरों के बफादार सिपाही होकर
इसके हाथों को कांट देते हैं
सर पर बारूद फैंकते हैं
जीभ को कतल कर देते हैं
और कभी कभी तो
इसका हिरदा नाप कर
उसका नामकरण कर देते हैं
अपनी ही सीमत सोच अनुसार ...
यह कैसी हमदर्दी है
कैसा प्यार है
कैसा सतिकार है इस माँ के लिए
जिसके एक हिस्से को
हम संवारना चाहते हैं
और दूसरे को
मिटाना चाहते हैं ....
धरती तो चेतन है
जागी हुई ।
जागी हुई
और परिकर्मा कर रही है
सदीओं का पहन के सुनहरी मुकुट
पर आर्शीवाद देने के लिए मजबूर है
सरहद के दोनों ही तरफ़
लड़ रहे बहादुर जवानो को
क्यूके
वो तो माँ है ...
पर हम ने
इस माँ को बाँट रखा है
छोटे छोटे टुकडों में काट रखा है
चिट्टे,काले,पीले और भूरे रंगों में
इसको शिंगार के
पूरी धरती में वो रंग
ढूँढने लगते हैं
जो हमारे मन में बसा हो ...
कई वार
हम इस माँ के
पैरों के बफादार सिपाही होकर
इसके हाथों को कांट देते हैं
सर पर बारूद फैंकते हैं
जीभ को कतल कर देते हैं
और कभी कभी तो
इसका हिरदा नाप कर
उसका नामकरण कर देते हैं
अपनी ही सीमत सोच अनुसार ...
यह कैसी हमदर्दी है
कैसा प्यार है
कैसा सतिकार है इस माँ के लिए
जिसके एक हिस्से को
हम संवारना चाहते हैं
और दूसरे को
मिटाना चाहते हैं ....
धरती तो चेतन है
जागी हुई ।
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