Thursday, December 10, 2009

एक परदा है

एक परदा है
भीतर ही भीतर
लटक रहा
मूलाधार से सहस्रार तक
सात छल्ले घूम रहें है
अपने सफर में
धरती की तरह
एक सीधी रेखा में
एक महा सूर्य के इर्द -गिर्द
बाहर से इक आवाज़ आती है
जो कह रही है
उसे महा -सूर्य दिखता नही
ऊर्जा घूमती हुई महसूस नही होती
निगल गयी हैं सब
दो आँखे खुशक सी
बोल रहीं हैं भीतर
सब भ्रमजाल है ....

तीसरी आँख जख्मी है
फ़िर भी तर है
आंसूओं से
बाहर देखती है
कुछ भी साफ दिखता नहीं
कुछ हो रहा है
पल पल बेहोशी की यात्रा में लींन है
एक दौड़ है
सभी दौड़ रहें हैं
कहाँ जाना है
कुछ पता नहीं
रो रही है तीसरी आँख
देख रही है
बाहर का भ्रमजाल ....

एक परदा है
दोनों और ज़िन्दगी है
इक दूजे से झगड़ रही है
अपने अपने भ्रमजाल को
कोस रही है
परदा गिरने तक
पारदर्शी होने तक ॥

1 comment:

  1. mujhe laga aap meri yatra ki baat bta rhe ho. एक परदा है भीतर ही भीतर लटक रहा and तीसरी आँख जख्मी है फ़िर भी तर है and एक परदा है दोनों और ज़िन्दगी है
    Vah, kaya baat hai Jasbir. Bahut hi oonchi kavita hai. Piara Singh Kudowal pskudowal@yahoo.com

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