Sunday, December 27, 2009

रेखा से सिफ़र तक

और मैं
फिर सिफ़र बन गया
एक वकत था
जब काल की लम्बी सड़क पर
मैं एक सिफ़र था
महज़ सिफ़र
फिर किसी के हसीन पाँव
इस सिफ़र पर पड़े
और मैं सिफ़र से
एक सीधी रेखा बन गया ...

फिर शुरू हुआ
इस रेखा का सफ़र
तेरे शहर के रंगीन चित्र पर
पर मैं अकेला नहीं था
मेरे साथ कई और रेखाएँ भी
चल रहीं थी
बिलकुल मेरे समांतर...

मैं इंतज़ार में था
संधूरी पद चाप को
औढ कर बैठा
सफ़र की होंद का
प्रशन चिन्ह पहने
बाकी रेखाओं की ही तरह ...

फिर मैंने खुद
इन्ही आँखों से देखा
एक सिफ़र को सीधी रेखा
बनते हुए
बिलकुल मेरी तरह ...

और मैं फिर
सिफ़र बन गया
फिर शुरू हुआ
काल की लम्बी सड़कों पर
इस सिफ़र का सफ़र
जमाह घटाओ की होंद से
बहुत दूर
एक
अन्नत सफ़र की तलाश में ।

3 comments:

  1. अति सुन्दर!

    यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    शुभकामनाएँ!
    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

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  2. बहुत सुंदर कविता है जसबीर जी, हमेशा की तरह जितनी ऊपर दिखती है उस से ज़्यादा अंदर पैठी हुई..आइसबर्ग के जैसे..ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं
    और मैं फिर
    सिफ़र बन गया
    फिर शुरू हुआ
    काल की लम्बी सड़कों पर
    इस सिफ़र का सफ़र
    जमाह घटाओ की होंद से
    बहुत दूर
    एक
    अन्नत सफ़र की तलाश में
    नववर्ष आपको तथा आपके परिवार को शुभ हो..
    शैलजा

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  3. ਓਏ ਹੋਏ .....ਇਹ ਸਿਫਰ ਦਾ ਸਫ਼ਰ ....ਕਮਾਲ ਦਾ ਲਿਖਿਆ ਹੈ ਤੁਸੀਂ ......!!

    ਬਹੁਤ ਵਧਿਆ ਲਿਖਦੇ ਹੋ ਤੁਸੀਂ .....!!

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