Sunday, December 20, 2009

हुआ तकसीम

हुआ तकसीम कितनी वार मैं हांसिल नहीं कोई।
मैं चलता जा रहा हूँ पर मेरी मंज़िल नहीं कोई ।

मेरे अंदर मुहब्बत करने वाला आदमी था जो ,
वो अपनी मौत ही मारा गया कातिल नहीं कोई ।

बड़ा सोचा था बस तैरेंगे आँखों के सुमन्दर में ,
मगर डूबे तो फिर आया नज़र साहिल नहीं कोई ।

हमेशा नींद के दरवाज़े पे मैं ठहर जाता हूँ ,
मुझे लगता मेरे खाबों में भी महफ़िल नहीं कोई ।

खुदा के पास रहता हूँ उसी के साथ चलता हूँ
वो मुझ को फिर भी कहता है मेरा कामिल नहीं कोई ।


हमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
हमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।

2 comments:

  1. हमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
    हमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।

    बहुत खूब कहा है आपने। हर शेर मजेदार। वाह।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. जसबीर जी,बहुत बढ़िया गजल है।बधाई।

    हमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
    हमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।

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