हुआ तकसीम कितनी वार मैं हांसिल नहीं कोई।
मैं चलता जा रहा हूँ पर मेरी मंज़िल नहीं कोई ।
मेरे अंदर मुहब्बत करने वाला आदमी था जो ,
वो अपनी मौत ही मारा गया कातिल नहीं कोई ।
बड़ा सोचा था बस तैरेंगे आँखों के सुमन्दर में ,
मगर डूबे तो फिर आया नज़र साहिल नहीं कोई ।
हमेशा नींद के दरवाज़े पे मैं ठहर जाता हूँ ,
मुझे लगता मेरे खाबों में भी महफ़िल नहीं कोई ।
खुदा के पास रहता हूँ उसी के साथ चलता हूँ
वो मुझ को फिर भी कहता है मेरा कामिल नहीं कोई ।
हमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
हमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।
Sunday, December 20, 2009
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हमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
ReplyDeleteहमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।
बहुत खूब कहा है आपने। हर शेर मजेदार। वाह।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
जसबीर जी,बहुत बढ़िया गजल है।बधाई।
ReplyDeleteहमारे मन में लगते हैं हजारों रोज़ ही मेले ,
हमारे साथ तनहाई में यु शामिल नहीं कोई ।