Sunday, March 27, 2011

ग़ज़ल p4

मुझे अब आ गया है ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कहना ।
जहाँ मिल जाये कुछ मस्ती उसे ही मयकदा कहना ।

मैं इक कतरा चला हूं मुस्करा कर मापने सागर ,
मेरी दीवानगी साहिल को मेरी अलविदा कहना ।

जो दरिया गुनगुनाता है नदी जब राग सा छेड़े,
उसे जा के समुन्दर की ज़रा आबो-हवा कहना।

मैं खुद अप्पना पता बनकर ही रहता हूं कहीं खुद में ,
कहाँ जायज़ है फिर मेरा खुदी को लापता कहना ।

बिना मांगे तुम्हे सबकुछ यहाँ कुदरत से मिलता है ,
इसे अपनी दुआ समझो या फिर उसकी अदा कहना।

बड़ी मुश्किल से माथे की लकीरों को बचाया है ,
बहुत मुश्किल था पत्थर को यूँ अपना आईना कहना।

किसी के भी लिए दिल में कभी रखता नहीं रंजिश ,
मुझे आता नहीं जसबीर खुद को बे-बफा कहना ।

6 comments:

  1. Jasbirji aapki gazal bahut achchhi hai aap likhte rahiye blog ki duniya me nam kamaye. Gopal Tiwari hasya-vangya.blogspot.com

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  2. हिन्दी के लिये प्रयास, बहुत अच्छा
    http://www.prativad.com

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  3. बहुत ही बढ़िया |

    कृपया मेरी भी रचना देखें और ब्लॉग अच्छा लगे तो फोलो करें |
    सुनो ऐ सरकार !!
    और इस नए ब्लॉग पे भी आयें और फोलो करें |
    काव्य का संसार

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  4. बहुत सुन्दर रचनाएं ..मन को छू जाने वाली
    भ्रमर ५
    लकीरें फिर मेरे माथे की अक्सर फट ही जाती है,
    मेरा जब भी किसी पत्थर को अपना आईना कहना।

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  5. aap achchha kah rahe the. aapke chup ho jane ki vajah kya rahi?

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