न अब कर फैंसला ऐसा के जो अकसर अटक जाए
शुरू से न करो इतना शुरू के राह थक जाए
मुझे उसने कहा आकर मिलो मुझको मेरे मन में
कहीं ऐसा न हो मैं पहुंच जाऊं वो भटक जाए
खुदा को गर समझ लेते तो अब तक तुम खुदा होते
भला इससे कोई पहले ही क्यूं सूली लटक जाए
चले तो थे मेरे सपने मगर कदमों को पाते ही
कभी राहें तिलक जाएँ कभी मंजिल सरक जाए
सुना है आजकल आँखें तेरी ऐसे छलकती है
मेरा हर जाम तेरे नाम से जैसे छलक जाए
Sunday, April 12, 2009
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बहुत खूब। देखिये मेरी भी तुकबंदी-
ReplyDeleteतु्म्हारे साथ मिलकर ही कटेगी जिन्दगी अपनी।
हमें डर है कहीं साथी खयालों से पलट जाए।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत बढिया जसबीर जी। सभी पंक्तियाँ बहुत सुन्दर हैं।...खास कर " चले तो थे मेरे सपने मगर कदमों को पाते ही
ReplyDeleteकभी राहें ..." क्या यहाँ " तिलक " शब्द है या " चटक" शब्द है..मुझे लग रहा है कि चटक शब्द है..बताइयेगा..
जीवन की सच्चाई से जुडी पंक्तियाँ हैं सभी...बधाई।
शैलजा
bahut achhi gazal hai jasbirji, badhai ho kya tilak shabd ki jagah fisal theek nahi rahegaa
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