Sunday, August 8, 2010

मैं पत्थर हूँ ... ग़ज़ल

मैं पत्थर हूँ मुझे जीना नहीं भगवान सा बनकर ।
मुझे रहना नहीं खुद में कोई मेहमान सा बनकर ।

कोई जीता यां हारा ख़ाक मेरी ही उडी हर पल ,
जिया मैं ज़िन्दगी को जंग का मैदान सा बनकर ।

मेरी हर सोच में रहता है यह बाज़ार दुनिया का ,
मैं अप्पने घर पड़ा रहता हूँ बस सामान सा बनकर ।

मेरे अंदर मेरे चिहरों में इक ऐसा भी चिहरा है ,
जो मुझ को रोज़ मिलता है मगर अनजान सा बनकर ।

रहा हूँ मैं तेरी दुनिया में जैसे मैं नहीं कुछ भी ,
रहा मैं दूर मैं मैं से कहीं गुमनाम सा बनकर ।

कहाँ कैसे मिलु तेरा कोई अरमान सा बनकर ,
अभी रहता हूँ अप्पने पास मैं मेहमान सा बनकर ।

1 comment:

  1. मेरे अंदर मेरे चिहरों में इक ऐसा भी चिहरा है ,
    जो मुझ को रोज़ मिलता है मगर अनजान सा बनकर ।

    बहुत ही सुन्दर्…………क्या खूब कहा है।

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