मैं आज हूँ
तज़रबे रहत आज
मेरा अतीत
मेरे आज में
फैला हुआ है
मेरा भविष
मेरे आज को
निगल जाना चाहता है
कुछ बातें
समझ आने के बहुत करीब हैं....
जाग कर देखता हूँ
किसी पल को
मेरे माथे पे
बैठा पाता हूँ
आँखें बंद करता हूँ
कोई माथे का दरवाज़ा खोल
भीतर ही भीतर
सीड़ीआँ उतरता है
पल पल की ठक -ठक
सिर में गूँज रही है
कुछ कुछ बातें समझ आने लगीं हैं .....
कैसी मैं है
जो बिखरती जा रही है
कैसी तूँ है
जो मुझे खंडित नहीं होने देती
असधारण पल हैं
ना मैं है
ना कोई कोशिश
ना कुछ होने का एहसास है
कुछ कुछ बातें समझ आ गयी हैं .....
कुछ बातें समझ आने के
बहुत करीब हैं ...
कुछ बातें समझ कर भी
समझ नहीं आती ... ।
Thursday, April 22, 2010
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nice
ReplyDeleteबढ़िया.
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