Thursday, April 22, 2010

कुछ बातें

मैं आज हूँ
तज़रबे रहत आज
मेरा अतीत
मेरे आज में
फैला हुआ है
मेरा भविष
मेरे आज को
निगल जाना चाहता है
कुछ बातें
समझ आने के बहुत करीब हैं....

जाग कर देखता हूँ
किसी पल को
मेरे माथे पे
बैठा पाता हूँ
आँखें बंद करता हूँ
कोई माथे का दरवाज़ा खोल
भीतर ही भीतर
सीड़ीआँ उतरता है
पल पल की ठक -ठक
सिर में गूँज रही है
कुछ कुछ बातें समझ आने लगीं हैं .....

कैसी मैं है
जो बिखरती जा रही है
कैसी तूँ है
जो मुझे खंडित नहीं होने देती
असधारण पल हैं
ना मैं है
ना कोई कोशिश
ना कुछ होने का एहसास है
कुछ कुछ बातें समझ आ गयी हैं .....

कुछ बातें समझ आने के
बहुत करीब हैं ...
कुछ बातें समझ कर भी
समझ नहीं आती ... ।

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