मेरे अंदर जो औरत है
बिलकुल तुम्हारे जैसी है
इसलिए शायद
वो तुम से मिलने के लिए बेचैन है
मैं वार वार उसे मिलाने के लिए
तेरी और खींचा चला आता हूँ
लेकिन हर वार उसकी तड़प को
दो- गुना करके
अपने ही अंदर
कहीं और गहरा पाता हूँ ....
तुम मुझे जब पहली वार मिली
तो मुझे लगा
जैसे मैं तुम्हे बहुत पहले से
जानता हूँ ...पहचानता हूँ
दूसरी वार मुझे लगा
जैसे कोई अनजानी धरती
हमारे बीच है
तीसरी वार हमने कोशिश करके
एक सांझी धरती ढूंढ ली थी
जिस पर हम तीनो खड़े हो सकते थे .....
फिर अचानक... एक दिन
तुम्हारे अंदर का आदमी
मुझे मिलने आया
सच कहूं ...
वो मुझे बिलकुल नहीं जानता था
वो मुझे बिलकुल नहीं पहचानता था
मैं उसके जैसा कहीं से था भी नहीं
वो लौट गया था शायद
या तुमने उसे अपने ही अंदर
कहीं बन्द कर लिया था .....
अब ...जब भी हम मिलते हैं
तो हम त्रिकोण के मिलन -बिन्दुओं पर खड़े होकर
एक दूसरे को निहारते हैं
एक बिंदु ...
दूर कहीं बहुत दूर
हमारे निकट आने की कोशिश में
और भी सदीओं दूर चला जाता है
उस वकत ...
हमारे नीचे की सांझी धरती में
कुछ रेखाए उभर आती है .... ।
लेकिन अब ...
जब मैं जागती आँखों से देखता हूँ
तो पाता हूँ .....
के मेरे अंदर जो औरत है
बिलकुल तुम्हारे जैसी नहीं है ...
और तुम्हारे अंदर जो आदमी है
कितना मुझसे मिलता है... ।
Saturday, April 10, 2010
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बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeletebahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat