Sunday, March 21, 2010

जब से

जब से में तेरे साज़ की चुप हूँ ।
तब से अपनी आवाज़ की चुप हूँ ।

मुझ को मालुम नहीं कहाँ जाना
इस लिए हर आगाज़ की चुप हूँ ।

अपने ही आप से में लड़ता हूँ ,
जाने किस किस मुहाज़ की चुप हूँ ।

मैं तेरे वासते जिया हर पल ,
मैं तो उम्मरे-दाराज़ की चुप हूँ ।

तुम में हर पल ही जो बदल जाता ,
मैं तेरे उस मजाज़ की चुप हूँ ।

मैं ना सुकरात हूँ ना सरमद कोई,
पर खुदा के ही राज़ की चुप हूँ ।

1 comment:

  1. बहुत उम्दा!

    हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

    लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

    अनेक शुभकामनाएँ.

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