मैं आज हूँ
तज़रबे रहत आज
मेरा अतीत
मेरे आज में
फैला हुआ है
मेरा भविष
मेरे आज को
निगल जाना चाहता है
कुछ बातें
समझ आने के बहुत करीब हैं....
जाग कर देखता हूँ
किसी पल को
मेरे माथे पे
बैठा पाता हूँ
आँखें बंद करता हूँ
कोई माथे का दरवाज़ा खोल
भीतर ही भीतर
सीड़ीआँ उतरता है
पल पल की ठक -ठक
सिर में गूँज रही है
कुछ कुछ बातें समझ आने लगीं हैं .....
कैसी मैं है
जो बिखरती जा रही है
कैसी तूँ है
जो मुझे खंडित नहीं होने देती
असधारण पल हैं
ना मैं है
ना कोई कोशिश
ना कुछ होने का एहसास है
कुछ कुछ बातें समझ आ गयी हैं .....
कुछ बातें समझ आने के
बहुत करीब हैं ...
कुछ बातें समझ कर भी
समझ नहीं आती ... ।
Thursday, April 22, 2010
Saturday, April 10, 2010
मेरे अंदर जो औरत है
मेरे अंदर जो औरत है
बिलकुल तुम्हारे जैसी है
इसलिए शायद
वो तुम से मिलने के लिए बेचैन है
मैं वार वार उसे मिलाने के लिए
तेरी और खींचा चला आता हूँ
लेकिन हर वार उसकी तड़प को
दो- गुना करके
अपने ही अंदर
कहीं और गहरा पाता हूँ ....
तुम मुझे जब पहली वार मिली
तो मुझे लगा
जैसे मैं तुम्हे बहुत पहले से
जानता हूँ ...पहचानता हूँ
दूसरी वार मुझे लगा
जैसे कोई अनजानी धरती
हमारे बीच है
तीसरी वार हमने कोशिश करके
एक सांझी धरती ढूंढ ली थी
जिस पर हम तीनो खड़े हो सकते थे .....
फिर अचानक... एक दिन
तुम्हारे अंदर का आदमी
मुझे मिलने आया
सच कहूं ...
वो मुझे बिलकुल नहीं जानता था
वो मुझे बिलकुल नहीं पहचानता था
मैं उसके जैसा कहीं से था भी नहीं
वो लौट गया था शायद
या तुमने उसे अपने ही अंदर
कहीं बन्द कर लिया था .....
अब ...जब भी हम मिलते हैं
तो हम त्रिकोण के मिलन -बिन्दुओं पर खड़े होकर
एक दूसरे को निहारते हैं
एक बिंदु ...
दूर कहीं बहुत दूर
हमारे निकट आने की कोशिश में
और भी सदीओं दूर चला जाता है
उस वकत ...
हमारे नीचे की सांझी धरती में
कुछ रेखाए उभर आती है .... ।
लेकिन अब ...
जब मैं जागती आँखों से देखता हूँ
तो पाता हूँ .....
के मेरे अंदर जो औरत है
बिलकुल तुम्हारे जैसी नहीं है ...
और तुम्हारे अंदर जो आदमी है
कितना मुझसे मिलता है... ।
बिलकुल तुम्हारे जैसी है
इसलिए शायद
वो तुम से मिलने के लिए बेचैन है
मैं वार वार उसे मिलाने के लिए
तेरी और खींचा चला आता हूँ
लेकिन हर वार उसकी तड़प को
दो- गुना करके
अपने ही अंदर
कहीं और गहरा पाता हूँ ....
तुम मुझे जब पहली वार मिली
तो मुझे लगा
जैसे मैं तुम्हे बहुत पहले से
जानता हूँ ...पहचानता हूँ
दूसरी वार मुझे लगा
जैसे कोई अनजानी धरती
हमारे बीच है
तीसरी वार हमने कोशिश करके
एक सांझी धरती ढूंढ ली थी
जिस पर हम तीनो खड़े हो सकते थे .....
फिर अचानक... एक दिन
तुम्हारे अंदर का आदमी
मुझे मिलने आया
सच कहूं ...
वो मुझे बिलकुल नहीं जानता था
वो मुझे बिलकुल नहीं पहचानता था
मैं उसके जैसा कहीं से था भी नहीं
वो लौट गया था शायद
या तुमने उसे अपने ही अंदर
कहीं बन्द कर लिया था .....
अब ...जब भी हम मिलते हैं
तो हम त्रिकोण के मिलन -बिन्दुओं पर खड़े होकर
एक दूसरे को निहारते हैं
एक बिंदु ...
दूर कहीं बहुत दूर
हमारे निकट आने की कोशिश में
और भी सदीओं दूर चला जाता है
उस वकत ...
हमारे नीचे की सांझी धरती में
कुछ रेखाए उभर आती है .... ।
लेकिन अब ...
जब मैं जागती आँखों से देखता हूँ
तो पाता हूँ .....
के मेरे अंदर जो औरत है
बिलकुल तुम्हारे जैसी नहीं है ...
और तुम्हारे अंदर जो आदमी है
कितना मुझसे मिलता है... ।
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