Monday, October 26, 2009
ग़ज़ल
मैं बूड़ा आदमी बच्चों के खाबों को नहीं समझा ।
सवाले-यार था इतना के आख़िर तुम मेरे क्या हो ,
मैं अपने ही दिए लाखों जबाबों को नही समझा ।
वो ख़ुद मिलने को कहते हैं मगर आते नही मिलने ,
मैं सारी उम्मर ही उनके हिसाबों को नही समझा ।
वो मेरी हर ग़ज़ल में है वो मेरी हर नज़म बनती ,
मैं उस पे ही लिखी अपनी किताबों को नही समझा ।
वो हैं परदा-नशीं फ़िर भी हमेशा चाँद से दिखते,
मैं काले बादलों जैसे हिजाबों को नही समझा ।
मेरी किसमत के सूरज ने मूझे दीया अँधेरा है ,
मैं अब तक इतने सारे आफ्ताबों को नही समझा ।
मेरी हर रात तो उनके खिआलों में गुज़रती है ,
मैं फ़िर भी चीख़ बनकर आए खाबों को नही समझा ।
Sunday, October 25, 2009
अपने आप को
चल पड़ा हूँ दोस्त
इस गाँव की एक ही राह
जिसपे एक घर
खुलता है जिसका दरवाजा
मेरी पैडों की और
ऊडीक रही है माँ
दरवाजे पे दस्तकें...
मेरे दोस्त
अब तेरी आवाज़
एकसुर नही रही
यह किसी सूखम लैय को ढूँढती
अपने ही ताने-बाने में कहीं उलझ गयी है
गुम गयी है
ख़ामोश हो गयी है
तुम्हारे कानो में फसे छोर में ....
तुम्हारे कदम अब
लड़खड़ा चुकें है
तुम्हारे अपने ही साये ने
उनको छीन लिया हैं
जिसका आकार
तुम्हारी मैं -मैं से तंग आकर
किसी तूं को
समर्पित होने जा चुका है ...
तुम्हारा मन अब
बीयाबान जंगल है
जिसके हर पेड़ पर
तुमने अपना नाम लिखना है
और उनकी असली तड़प
दबा देनी है
अपनी ही सोच के
संबोधनों के तरक में ...
इसलिये मेरे दोस्त
मेरी बे-बफाई याद मत करना
भूल जाना मुझे
मैं तो ढूँढने चला था
उस देश की राह
यहाँ मेरी मैं ख़तम होती है
यहाँ से मेरे ही भीतर बसी
तूं शुरू होती है ....
ऊडीक रही है माँ
दरवाज़े पे दस्तकें ।
Friday, October 23, 2009
कवि
यह अपने आप में अनहोनी घटना है
के वो सारी उमर लिखता रहा
कभी नज़्म ,कभी ग़ज़ल
और कभी कभी ख़त कोई ...
पर यह सच है
उसकी कोई भी लिखत
ना किसी किताब ने संभाली
न किसी हसीना के थरकते होठों ने ... ।
वो लिखता क्या था
मैं आज आपको बताता हूँ
वो लिखता था एक कथा
जो जन्म से पहले
पिता के लिंग का मादा था
और फ़िर
अपने बेटे के जिस्म
में बसा ख़ुद वो ... ।
यह हंसती हुई
गंभीर घटना तब शुरू हुई
जब उसने पहली बार
पीड़ित देखा
अपने माथे पर चमकते
चाँद के दाग का खौफ़
खौफ़ क्या था ?
बस यूँ ही जीए जाने
की आदत का एहसास ... ।
वो बर्दाश्त नही करता था
अपनी सांस में उठती पीड़ा की
हर नगन हँसी का मजाक
वो स्वीकार नही करता था
इतिहास के किसी
सफ़े पर
अपने पिछले जन्म का पाप ... ।
उसका नित-नेम
कोई कोरा -कागज़ था
और रोज़-मररा की जरूरत
हाथ में पकड़ी हादसाओं की कलम
वो बड़ी टेडी जिंदगी जी रहा था
बे-मंजिल सफर सर कर रहा था
पर फिर भी
वो जी रहा था
लिख रहा था
और हर पल तैर रहा था
शब्दों के बीचों -बीच
आंखों के समंदर में ।
Thursday, October 22, 2009
गुमशुदा
तो वो बोला ...
कविता सोच की छत पे लगी
सीडी के पहले डंडे का नाम है
जिसपे शामिल है
अतीत के अंतिम पडाओ
जिंदगी के बोझिल से फैंसले
और कई आंतरिक पीडा के चिन्ह
जिनपे हर नाप के जूते के निशाँ हैं ... ।
फिर किसी ने उसकी
सुपनमई आंखों से झांककर
वक़्त बारे प्रशन कीया
तो वो बोला
वक़्त घंटाघर पे बैठे
उल्लू का नाम है
जिसकी आँखों में ना जाने
कितने दिनों का संताप है
कितनी रातों की तड़प है
जिनके सहारे
वो वहां बैठा
सब को निहारता रहता है ... ।
फिर किसी ने जिंदगी बारे जानना चाहा
तो वो थोड़ा ऊँचे स्वर में बोला
मेरा ही नाम जिंदगी है
वरतमान के कुछ पलों -छिनों का
आपके अंदर तक चले जाना
और फिर दुखों -सुखों के बलवले
बनकर बाहर बहना
आशाओं के दीप जलाना
और रौशनी पकड़ने की कोशिश करना ... ।
फिर एक बजुर्ग माता बोली
तूँ कुछ झुरडिया बारे भी दस
वो बोला ...
यह आपकी राहों के
अन्तिम मोड़ की तरह होती हैं
तुम इनको अपने में संजो लो
इनमे बहते पसीने को
पूरी गती से बहने दो
जोर जोर से हंसो
और इस पल -छिन
की बात करो ... ।
फिर एक फकीर बाहें फैलाकर बोला
समाधी क्या है ?
वो बोला
समाधी सीड़ी-सीड़ी
चड़ने की कोशिश नहीं
यह तो हर पल के
उस पार जाने का नाम है
हिरदे-चक्र में बंद अपने प्रीतम को
खुली हवाओं में छोड़ने की तड़प है
और हर सरहद के पार
अचेतन से चेतन तक का सफर है ... ।
फिर एक चुप सी औरत
उस के पास आती है
रोते -रोते पूछती है
किसी का देश छोड़ आना
किसी का शहर छोड़ आना
अपने आपसे कितना इन्साफ है ?
वो कुछ नही बोलता
वो थोड़ा घबराती है
फिर उसे निहारती है
और पूछती है
तुम जसबीर हो न ?
वो थोड़ा याद करता है
खामोशी में
जोर जोर से हँसता है
भीड़ की और देखता है
और फिर धीरे से कहता है
'जसबीर'?
वो तो अपने खिलाफ एक
जंग में
गुमशुदा घोषित
कर दीया गया है
Sunday, October 11, 2009
सारी दुनिया में ढूँड कर देखा
ख़ुद में ही गुलशन-ऐ-दहर देखा ।
सब दीवारों से बांहे निकली थी ,
जब भी मुद्दत के बाद घर देखा ।
आपके दिल से मेरे दिल तीकर ,
इतना लम्बा नहीं सफर देखा ।
जब भी दिए की रोशनी देखी,
अपने माथे के दाग पर देखा ।
उसको पडतें किताब की मानिद,
जिसको भी हमने इक नज़र देखा ।
चार ही लोग आखिरी देखे ,
फिर ना' जसबीर ' हमसफ़र देखा ।
Friday, October 2, 2009
रोज़ यूं मर मर के जीना
हम से अब तो रोज़ ही ये खुदकशी होती नही ।
ज़र्द पत्ता हूँ बढाऊँ कांपता सा हाथ मैं ,
पर मेरी पागल हवा से दोस्ती होती नही ।
जिस की आँखों में भी झांकू भीड़ सी आये नज़र,
हम से इतने शोर में तो बंदगी होती नही ।
फूल खिलते ही गिरी हो लाश भंवरे की अगर ,
उस जगह कोई भी खुशबू बावरी होती नही ।
मैं मेरे अंदर से बोलूँ इस जगह कैसे रहूँ ,
दम मेरा घुटता यहाँ भी बंसरी होती नही ।
अब तो बस इत्हास बनना चाह रहा हर आदमी ,
अब किसी चिहरे पे कोई ताज़गी होती नही ।
पत्थरों के शहर न पत्थर बना डाला मुझे ,
अब किसी आईने से कोई दोस्ती होती नही ।