Sunday, May 31, 2009

भीतर का सूर्य

जब भीतर
सूर्य उदय होता है
चेतना समय सीमा से
पार चली जाती है
मन के हर दरवाज़े से
नकली बोध
बाहर भागता है
जिसम उस वकत
पहली वार जागना सीखता है
द्वन्द थक हार कर
बैठ जाता है
तब हर शै जागती हुई
अपने आप में संयुकत
महसूस होती है
कहीं कोई बटवारा नही होता
एक सदीवी मौन
भीतर ही भीतर सीडियाँ
उतरता है ...
तब सब कुछ महज़
ख़ामोश सा हो जाता है
जब भीतर का सूर्य
चेतना के सिर पे होता है

Saturday, May 23, 2009

ज़िन्दगी ऐसे मिली

ज़िन्दगी ऐसे मिली जैसे सजाएं ही मिलें
फिर भी लम्बी उमर हो ऐसी दुआएं ही मिलें

अब सभी रिश्तों में गर्मी सी नज़र आए मुझे
मैंने ये सोचा ही कयों ठंडी हवाएं ही मिलें

दूर जाता हूँ कहीं ख़ुद से निकलकर जब कभी
मुझ को फिर मेरे लिए मेरी सदायें ही मिलें

सब के चेहरों पे बहारें ही बहारें थी खिलीं
जब ज़रा झाँका किसी अंदर खिजाएं ही मिलें

पास अपने हो सभी कुछ तो जियेंगे ज़िन्दगी
पर सभी कुछ में मुझे हंसती क्जायें ही मिलें

Friday, May 22, 2009

पता होता तो

पता होता तो हम ऐसा कभी दिलदार ना करते
मुहब्बत का किसी से भी कभी इज़हार ना करते

अगर आना उन्हें होता तो दरिया चीर कर आते
तूफां से दिल में गर उठते किनारे यार ना करते

कभी तुम आज़माते तो हमारे इशक की अज़्मत
कभी फिर मांगते तुम जान हम इनकार ना करते

हमारी आँख से आँसू रवां होते ना फिर ऐसे
अगर ख़ुद को वफा के नाम पे बेज़ार ना करते

अगर होता उन्हें पासे वफ़ा मेरी मुहब्बत का
तो मेरी पीठ पर वो इस तरह से वार ना करते

Saturday, May 16, 2009

जब से

जब से अपने सितारे गर्दिश में
तब से सारे सहारे गर्दिश में

मैं समुन्दर में इक समुन्दर हूँ
मेरे सारे किनारे गर्दिश में

याद वो उम्मर भर रहे मुझको
जो थे लम्हे गुजारे गर्दिश में

मेरे हिस्से ना कहकशा आया
घर की छत के नज़ारे गर्दिश में

दूर तक अब कोई नही दिखता
मैं ही मैं को पुकारे गर्दिश में

सब की आँखों पे खाक के परदे
कौन किसको निहारे गर्दिश में

Friday, May 8, 2009

सुनों जसबीर

सुनों जसबीर
मैं तुम्हें ढूंढने निकला हूँ
चेतन व अचेतन
के बीच बसे
छोटे से अन्तराल में
यहाँ ना नींद है
ना जागरण
ना झूठे चिहरे
ना कोई रंग
ना रूप
ना समय न स्थान
इस छोटे से अन्तराल में
मुझे तेरे
उस
मौलिक चिहरे की
तलाश है -जसबीर
जो किसी से
कहीं भी सम्बंधित नहीं
जो किसी भी रिश्ते का नाती नहीं
जो तेरे साथ
कहीं अकेला है
द्वंदरहत
ना कटा हुआ और
ना कहीं से
टूटा हुआ
इस लिए जसबीर
तूँ जियादा से जियादा
इसी अन्तराल में रहा कर
यहाँ ना दुख है
ना सुख है
ना आसूओं का से़लाब है
ना मुस्कराहट का सवाल है
ना जीवन है
ना मौत
क्यों के
मैं तुम्हें ढूंढने निकला हूँ
चेतन व अचेतन के बीच बसे
छोटे से अन्तराल में





Sunday, May 3, 2009

बेशक रहा न कोई

बेशक रहा न कोई गमखार ज़िन्दगी में
फिर भी खिले से रहना दरकार ज़िन्दगी में

टुकडों में बट गया है अंदर जो आदमी था
कैसे करे किसी से इकरार ज़िन्दगी में

बन काफ्ला चले थे फिर रह गए अकेले
सपनों को कैसे करते साकार ज़िन्दगी में

मएखार मिल गए थे कुश रास्ते में मुझको
बदले नज़र से आए आसार ज़िन्दगी में

ना वो ही बेवफा थे ना मैं ही बेवफा था
ना वकत बेवफा था हर वार ज़िन्दगी में

दिल और मन के अंदर दूरी मिटा सके ना
कितनी बदल गयी है रफ़्तार ज़िन्दगी में

एक अंतहीन कविता

आजकल वो
पैरों से लिखता है
राहों के कागज़ पर
एक अंतहीन कविता को
अन्तिम रूप देने की
इच्छा में

दरअसल वो
राख रहत
अपनी ही अस्थीआं लेकर
घूम रहा है
जीवन के इस
महासागर में शोड़ने के लिए

अक्सर वो ख़ुद को कहता है
मालूम है तुम को ...?
ये महायान धरती का
लेकर जा रहा तुम्हें
किस असीम की और

वो वार वार कान लगाकर
भीतर से कुश सुनने के इच्छा में
पैरों से लिखता जा रहा है
राहों के कागज़ पर
एक अंतहीन कविता ......